Monday 13 June 2016

भारत का संविधान-उद्देशिका



    भारत का संविधान
    उद्देशिका
    हम, भारत के लोग, भारत को एक[1][संपूर्ण प्रभुत्व-संन्न
    समाजवादी पंथनिरफेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य] बनाने के लिए,
    तथा उसके समस्त नागरिकों को :
    सामाजिक, आार्थिक और राजनैतिक न्याय,
    विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
    और उपासना की स्वतंत्रता,
    प्रतिष्ठा और अवसर की समता
    प्राप्त कराने के लिए,
    तथा उन सब में
    व्यक्ति की गरिमा और[2][राष्ट्र की एकता
    और अखंडता] सुनिाश्चित करने वाली बंधुता
    बढ़ाने के लिए
    दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख
    26 नवम्बर, 1949 ई0 (मिति मार्गशीर्ष शुक़्ला सप्तमी, संवत् दो
    हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकॄत,
    अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं ।


    [1] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 2 द्वारा (3-1-1977 से) “प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य” के स्थान फर प्रतिस्थापित ।
    [2] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 2 द्वारा (3-1-1977 से) “राष्ट्र की एकता” के स्थान फर प्रतिस्थापित ।

    भारत का संविधान - भाग 1 संघ और उसका राज्यक्षेत्र



      1. संघ का नाम और राज्यक्षेत्र--(1) भारत, अर्थात् इंडिया, राज्यों का संघ होगा ।
      [1][(2) राज्य और उनके राज्यक्षेत्र वे होंगेजो प हली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं|]
      (3) भारत के राज्यक्षेत्र में,--
      (क) राज्यों के राज्यक्षेत्र,
      [2][(ख) प हली अनुसूची में विनिर्दिष्ट संघ राज्यक्षेत्र, और]
      (ग)  ऐसे अन्य राज्यक्षेत्र जो आर्जित किएं  जाएं समाविष्ट होंगे ।
      2. नए राज्यों का प्रवेश या स्थापना--संसद्, विधि द्वारा, ऐसे निबंधनों और शर्तों पर, जो वह ठीक समझे, संघ में नए राज्यों का प्रवेश या उनकी स्थापना कर सकेगी ।
      [3]2क. [सिक्किम का संघ के साथ सहयुक़्त किया जाना।]--संविधान (छत्तीसवां संशोधन) अधिनियम, 1975 की धारा 5 द्वारा (26-4-1975 से) निरसित।
      3. नए राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में रिवर्तन--संसद्, विधि द्वारा--
      (क) किसी राज्य में से उसका राज्यक्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को या राज्यों के भागों को मिलाकर अथवा किसी राज्यक्षेत्र को किसी राज्य के भाग के साथ मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकेगी ;
      (ख) किसी राज्य का क्षेत्र बढ़ा सकेगी ;
      (ग) किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकेगी ;
      (घ) किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकेगी ;
      (ङ) किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकेगी :
      [4][परंतु इस प्रयोजन के लिए कोई विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना और जहां विधेयक में अंतर्विष्ट प्रस्थापना का प्रभाव[5]*** राज्यों में से किसी के क्षेत्र, सीमाओं या नाम पर पड़ता है वहां जब तक उस राज्य के विधान-मंडल द्वारा उस पर अपने विचार, ऐसी अवधि के भीतर जो निर्देश में विनिर्दिष्ट की जाए या ऐसी अतिरिक़्त अवधि के भीतर जो राष्ट्रपति द्वारा अनुज्ञात की जाएं , प्रकट किएं  जाने के लिएं  वह विधेयक राष्ट्रपति द्वारा उसे निर्देशित नहीं कर दिया गया है और इस प्रकार विनिर्दिष्ट या अनुज्ञात अवधि समाप्त नहीं  हो गई है, संसद् के किसी सदन में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा।]
      [6][स्पष्टीकरण 1--इस अनुच्छेद के खंड (क) से खंड (ङ) में, “राज्य” के अंतर्गत संघ राज्यक्षेत्र है, किंतु परंतुक में “राज्य” के अंतर्गत संघ राज्यक्षेत्र नहीं है ।
      स्पष्टीकरण 2--खंड (क) द्वारा संसद् को प्रदत्त शक्ति के अंतर्गत किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के किसी भाग को किसी अन्य राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के साथ मिलाकर नए राज्य या संघ राज्यक्षेत्र का निर्माण करना है।]
      4. पहली अनुसूची और चौथी अनुसूची के संशोधन तथा अनुपूरक, आनुषगिक और पारिणामिक वियों का उपबंध करने के लिए अनुच्छेद 2 और अनुच्छेद 3 के अधीन बनाई गई विधियां--(1) अनुच्छेद 2 या अनुच्छेद 3 में निर्दिष्ट किसी विधि में पहली अनुसूची और चौथी अनुसूची के संशोधन के लिएं  ऐसे उपबंध अंतर्विष्ट होंगे जो उस विधि के उपबंधों को प्रभावी करने के लिएं  आवश्यक हों तथा ॠसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध भी (जिनके अंतर्गत ऐसी विधि से प्रभावित राज्य या राज्यों के संसद् में और विधान-मंडल या विधान-मंडलों में प्रतिनिधित्व के बारे में उपबंध हैं) अंतर्विष्ट हो सकेंगे जिन्हें संसद् आवश्यक समझे ।
      (2) पूर्वोक्त प्रकार की कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए इस संविधान का संशोधन नहीं समझी जाएगी ।

      [1] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 2 द्वारा खंड (2) के स्थान फर प्रतिस्थापित ।
      [2] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 2 द्वारा उपखंड (ख) के स्थान फर प्रतिस्थापित ।
      [3] संविधान (पैंतीसवां संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 2 द्वारा (1-3-1975 से) अंतःस्थापित ।
      [4] संविधान (पांचवां संशोधन) अधिनियम, 1955 की धारा 2 द्वारा परंतुक के स्थान फर प्रतिस्थापित ।
      [5] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “पहली अनुसूची के भाग क या भाग ख में विनिर्दिष्ट” शब्दों और अक्षरों का लोप किया गया ।
      [6] संविधान (अठारहवां संशोधन) अधिनियम, 1966 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित ।

      भारत का संविधान -भाग 2 नागरिकता



        5. संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता--इस संविधान के प्रारंभ पर प्रत्येक व्यक्ति जिसका भारत के राज्यक्षेत्र में अधिवास है और--
        (क) जो भारत के राज्यक्षेत्र में जन्मा था, या
        (ख) जिसके माता या पिता में से कोई भारत के राज्यक्षेत्र में जन्मा था, या
        (ग) जो ऐसे प्रारंभ से ठीक प हले कम से कम पाँच वर्ष तक भारत के राज्यक्षेत्र में मामूली तौर से निवासी रहा है, भारत का नागरिक होगा ।
        6. पाकिस्तान से भारत को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार--अनुच्छेद 5 में किसी बात के होते हुए भी, कोई व्यक्ति जिसने ऐसे राज्यक्षेत्र से जो इस समय पाकिस्तान के अंतर्गत है, भारत के राज्यक्षेत्र को प्रव्रजन किया है, इस संविधान के प्रारंभ पर भारत का नागरिक समझा जाएगा--
        (क) यदि वह अथवा उसके माता या फिता में से कोई अथवा उसके पितामह या पितामही या मातामह या मातामही में से कोई (मूल रूप में यथा अधिनियमित) भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में जन्मा था ; और
        (ख) (त्) जबकि वह व्यक्ति ऐसा है जिसने 19 जुलाई, 1948 से पहले इस प्रकार प्रव्रजन किया है तब यदि वह अपने प्रव्रजन की तारीख से भारत के राज्यक्षेत्र में मामूली तौर से निवासी रहा है ; या
        (त्त्) जबकि वह व्यक्ति ऐसा है जिसने 19 जुलाई, 1948 को या उसके पश्चात् इस प्रकार प्रव्रजन किया है तब यदि वह नागरिकता प्राप्ति के लिए  भारत डोमिनियन की सरकार द्वारा विहित प्ररूप में और रीति से उसके द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले ऐसे अधिकारी को, जिसे उस सरकार ने इस प्रयोजन के लिए नियुक्त किया है, आवेदन किए जाने पर उस अधिकारी द्वारा भारत का नागरिक रजिस्ट्रीकॄत कर लिया गया है :
        परंतु यदि कोई व्यक्ति अपने आवेदन की तारीख से ठीक पहले कम से कम छह मास भारत के राज्यक्षेत्र में निवासी नहीं  रहा है तो वह इस प्रकार रजिस्ट्रीकॄत नहीं  किया जाएगा ।
        7. पाकिस्तान  को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्यक्ति यों के नागरिकता के अधिकार--अनुच्छेद 5 और अनुच्छेद 6 में किसी बात के होते हुए  भी, कोई व्यक्ति  जिसने 1 मार्च, 1947 के प श्चात् भारत के राज्यक्षेत्र से ऐसे राज्यक्षेत्र को, जो इस समय पाकिस्तान  के अंतर्गत है, प्रव्रजन किया है, भारत का नागरिक नहीं  समझा जाएगा :
        परंतु इस अनुच्छेद की कोई बात ऐसे व्यक्ति को लागू नहीं  होगी जो ऐसे राज्यक्षेत्र को, जो इस समय पाकिस्तान  के अंतर्गत है, प्रव्रजन करने के पश्चात् भारत के राज्यक्षेत्र को ऐसी अनुज्ञा के अधीन लौट आया है जो पुनर्वास के लिए या स्थायीरूप  से लौटने के लिए  किसी विधि के प्राधिकार द्वारा या उसके अधीन दी गई है और प्रत्येक ऐसे व्यक्ति  के बारे में अनुच्छेद 6 के खंड (ख) के प्रयोजनों के लिए  यह समझा जाए गा कि उसने भारतके राज्यक्षेत्र को 19 जुलाई, 1948 के पश्चात् प्रव्रजन किया है ।
        8. भारत के बाहर रहने वाले भारतीय उदभव के कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार--अनुच्छेद 5 में किसी बात के होते हुए भी, कोई व्यक्ति  जो या जिसके माता या फिता में से कोई अथवा पितामह या पितामही या मातामह या मातामही में से कोई (मूल रूप  में यथा अधिनियमित) भारत शासन अधिनियम, 1935 में परिभाषित भारत में जन्मा था और जो इस प्रकार परिभाषित भारत के बाहर किसी देश में मामूली तौर से निवास कर रहा है, भारत का नागरिक समझा जाएगा, यदि वह नागरिकता प्राप्ति  के लिए  भारत डोमिनियन की सरकार द्वारा या भारत सरकार द्वारा विहित प्ररूप में और रीति से अपने द्वारा उस देश में, जहां वह तत्समय निवास कर रहा है, भारत के राजनयिक या कौंसलीय प्रतिनिधि को इस संविधान के प्रारंभ से पहले या उसके पश्चात् आवेदन किए जाने पर ऐसे राजनयिक या कौंसलीय प्रतिनिधि द्वारा भारत का नागरिक रजिस्ट्रीकॄत कर लिया गया है ।
        9. विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से आर्जितकरने वाले व्यक्ति यों का नागरिक न होना--यदि किसी व्यक्ति ने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से आर्जित कर ली है तो वह अनुच्छेद 5 के आधार प र भारत का नागरिक नहीं  होगा अथवा अनुच्छेद 6 या अनुच्छेद 8 के आधार प र भारत का नागरिक नहीं  समझा जाएगा ।
        10. नागरिकता के अधिकारों का बना रहना--प्रत्येक व्यक्ति , जो इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में से किसी के अधीन भारत का नागरिक है या समझा जाता है, ऐसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए , जो संसद् द्वारा बनाई जाए , भारत का नागरिक बना रहेगा ।
        11. संसद् द्वारा नागरिकता के अधिकार का विधि द्वारा विनियमन किया जाना--इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों की कोई बात नागरिकता के अर्जन और समाप्ति के तथा नागरिकता से संबंधित अन्य सभी विषयों के संबंध में उपबंध करने की संसद् की शक्ति का अल्पीकरण नहीं  करेगी ।

        भारत का संविधान - भाग 3 मूल अधिकार



          साधारण
          12. परिभाषा --इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित  न हो, “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकारऔर संसद् तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान-मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारतसरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं ।
          13. मूल अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण  करने वाली विधियां--(1) इस संविधान के प्रारंभ से ठीकपहले भारत के राज्यक्षेत्र में प्रवॄत्त सभी विधियां उस मात्रा तक शून्य होंगी जिस तक वे इस भाग के उपबंधों सेअसंगत हैं ।
          (2) राज्य ऐसी  कोई विधि नहीं  बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है औरइस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी ।
          (3) इस अनुच्छेद में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,--
          (क) “विधि” के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में विधि का बल रखने वाला कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि ,नियम, विनियम, अधिसूचना, रूढि़ या प्रथा है ;
          (ख) “प्रवॄत्त विधि” के अंतर्गत भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विधान-मंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वाराइस संविधान के प्रारंभ से पहले  पारित या बनाई गई विधि है जो पहले ही निरसित नहीं  कर दी गई है, चाहे ऐसी  कोई विधि या उसका कोई भाग उस समय पूर्णतया या विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवर्तन में नहीं है ।
          [1][(4) इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए इस संविधान के किसी संशोधन को लागूनहीं होगी।]
          समता का अधिकार
          14. विधि के समक्ष समता--राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं  करेगा ।
          15. धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर  विभेद का प्रतिषेध --(1) राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध के केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा ।
          (2) कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर --
          (क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या
          (ख) पुर्णतः या भागतः राज्य-निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं,तालाबों, स्नानघाटों, स½कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग ,के संबंध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं  होगा।
          (3) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को ास्त्रियों और बालकों के लिए  कोई विशेष उपबंध  करने से निवारित नहीं  करेगी ।
          [2][(4) इस अनुच्छेद की या अनुच्छेद 29 के खंड (2) की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि सेपिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं  करेगी।]
          16. लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता--(1) राज्य के अधीन किसी पद  पर  नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी ।
          (2) राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उदभव , जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर  न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा ।
          (3) इस अनुच्छेद की कोई बात संसद् को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं  करेगी जो [3][किसी  राज्य या संघ राज्यक्षेत्र की सरकार के या उसमें के किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन वाले किसी वर्ग या वर्गों के पद  पर नियोजन या नियुक्ति  के संबंध में ऐसे नियोजन या नियुक्ति से पहले  उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के भीतर निवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती है।]
          (4) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं  है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं  करेगी ।
          [4][(4क) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं  है, राज्य के अधीन सेवाओं में [5][किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर , पारिणामिक ज्येष्ठता सहित, प्रोन्नति के मामलों में] आरक्षण के लिए उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी।]
          [6][(4ख) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को किसी वर्ष में किन्हीं न भरी गई ऐसी रिक्तियों को, जो खंड (4) या खंड (4क) के अधीन किए गए आरक्षण के लिए  किसी उपबंध  के अनुसार उस वर्ष में भरी जाने के लिए आरक्षित हैं, किसी उत्तरवर्ती वर्ष या वर्षों में भरे जाने के लिए पृथक् वर्ग की रिक्तियों के रूप में विचार करने से निवारित नहीं करेगी और ऐसे वर्ग की रिक्तियों  पर उस वर्ष की रिक्तियों  के साथ जिसमें वे भरी जा रही हैं, उस वर्ष की रिक्तियों की कुल संख्या के संबंध में पचास प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा का अवधारण करने के लिए विचार नहीं किया जाएगा।]
          (5) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विधि के प्रवर्तन पर  प्रभाव नहीं  डालेगी जो यह उपबंध करती है कि किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था के कार्यकलाप से संबंधित कोई पदधारी या उसके शासी निकाय का कोई सदस्य किसी विशिष्ट धर्म का मानने वाला या विशिष्ट संप्रदाय का ही हो ।
          17. अस्पृश्यता का अंत--“अस्पृश्यता” का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है । “अस्पृश्यता” से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा ।
          18. उपाधियों का अंत--(1) राज्य, सेना या विद्या संबंधी सम्मान के सिवाय और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा ।
          (2) भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा ।
          (3) कोई व्यक्ति, जो भारत का नागरिक नहीं है, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए  किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा ।
          (4) राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद  धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप  में कोई भेंट, उपलाब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं  करेगा ।
          स्वातंत्र्य-अधिकार
          19. वाक्-स्वातंत्र्य आदि विषयक कुछ अधिकारों का संरक्षण--(1) सभी नागरिकों को--
          (क) वाक्-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति -स्वातंत्र्य का,
          (ख) शांतिफूर्वक और निरायुध सम्मेलन का,
          (ग) संगम या संघ बनाने का,
          (घ) भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का,
          (ङ) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का, [7][और]
          [8]।    ।    ।    ।  ।     ।    ।
          (छ) कोई वॄत्ति, उपजीविका, व्यापर या कारबार करने का,अधिकार होगा ।
          [9][(2) खंड (1) के उपखंड (क) की कोई बात उक्त उपखंड  द्वारा दिए  गए  अधिकार के प्रयोग पर [10][भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीफूर्ण संबंधों, लोक व्यवस्था  , शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमान, मानहानि या अपराध -उद्दीफन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर  प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं  करेगी ।]
          (3) उक्त  खंड के उपखंड (ख) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर 4[भारत की प्रभुता औरअखंडता या] लोक व्यवस्था के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर  प्रभाव नहीं  डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी ।
          (4) उक्त  खंड के उपखंड (ग) कीकोई बात उक्त उपखंड  द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर 4[भारत की प्रभुता औरअखंडता या] लोक व्यवस्था या सदाचार के हितों में युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित  करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर  प्रभाव नहीं  डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित  करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी ।
          (5) उक्त  खंड के [11][उपखंड (घ) और उपखंड (ङ)] की कोई बात उक्त उपखंडों द्वारा दिए गए अधिकारों के प्रयोग परसाधारण जनता के हितों में या किसी अनुसूचित जनजाति के हितों के संरक्षण के लिए युक्तियुक्त निर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी ।
          (6) उक्त खंड के उपखंड (छ) की कोई बात उक्त उपखंड द्वारा दिए गए अधिकार के प्रयोग पर  साधारण जनता के हितों में युक्तियुक्त  निर्बन्धन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित  करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं  डालेगी या वैसे निर्बन्धन अधिरोपित  करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं  करेगी और
          विशिष्टतया [12][उक्त उपखंड की कोई बात--
          (त्) कोई वॄत्ति, उपजीविका, व्यापर या कारबार करने के लिए आवश्यक वॄत्तिक या तकनीकी अर्हताओं से, या
          (त्त्) राज्य द्वारा या राज्य के स्वामित्व या नियंत्रण में किसी निगम द्वारा कोई व्यापर , कारबार, उद्योग या सेवा, नागरिकों का पूर्णतः या भागतः अपवर्जन करके या अन्यथा, चलाए जाने से, जहां तक कोई विद्यमान विधि संबंध रखती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर  प्रभाव नहीं  डालेगी या इस प्रकार संबंध रखने वाली कोई विधि बनाने से राज्यको निवारित नहीं  करेगी।]
          20. अफराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण--(1) कोई व्यक्ति  किसी अपराध के लिए तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवॄत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं  होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवॄत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी ।
          (2) किसी व्यक्ति  को एक ही अपराध  के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं  किया जाएगा ।
          (3) किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति  को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं  किया जाएगा ।
          21. प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण--किसी व्यक्ति  को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं  ।
          [13][21क. शिक्षा का अधिकार--राज्य, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का ऐसी  रीति में, जो राज्य विधि द्वारा, अवधारित करे, उपबंध  करेगा।]
          [14]22. कुछ दशाओं में गिरफ़्तारी  और निरोध से संरक्षण--(1) किसी व्यक्ति  को जो गिरफ्तार  किया गया है, ऐसी गिरफ़्तारी  के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बिना अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा  या अपनी  रुचि के विधि व्यवसायी  से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं  रखा जाएगा  ।
          (2) प्रत्येक व्यक्ति  को, जो गिरफ्तार  किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध रखा गया है, गिरफ़्तारी  के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए  आवश्यक समय को छोड़कर ऐसी  गिरफ़्तारी से चौबीस घंटे की अवधि में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष फेश किया जाएगा  और ऐसे किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना उक्त अवधि से अधिक अवधि के लिएअभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा  ।
          (3) खंड (1) और खंड (2) की कोई बात किसी ऐसे  व्यक्ति  को लागू नहीं  होगी जो--
          (क) तत्समय शत्रु अन्यदेशीय है ; या
          (ख) निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन गिरफ्तार या निरुद्ध किया गया है ।
          (4) निवारक निरोध का उपबंध करने वाली कोई विधि किसी व्यक्ति  का तीन मास से अधिक अवधि के लिए  तब तकनिरुद्ध किया जाना प्राधिकॄत नहीं करेगी जब तक कि--
          (क) ऐसे  व्यक्तियों से, जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं या न्यायाधीश रहे हैं या न्यायाधीश नियुक्त  होने के लिए आर्हित हैं, मिलकर बने सलाहकार बोर्ड ने तीन मास की उक्त  अवधि की समाप्ति से पहले यह प्रतिवेदन नहीं दिया है
          कि उसकी राय में ऐसे निरोध के लिए पर्याप्त कारण हैं :
          परंतु इस उपखंड की कोई बात किसी व्यक्ति  का उस अधिकतम अवधि से अधिक अवधि के लिए निरुद्ध किया जाना प्राधिकॄत नहीं  करेगी जो खंड(7) के उपखंड  (ख) के अधीन संसद् द्वारा बनाई गई विधि द्वारा विहित की गई है ;
          या
          (ख) ऐसे  व्यक्ति   को खंड (7) के उपखंड  (क) और उपखंड  (ख) के अधीन संसद् द्वारा बनाई गई विधि के उपबंधों  के अनुसार निरुद्ध नहीं किया जाता है ।
          (5) निवारक निरोध का उपबंध  करने वाली किसी विधि के अधीन किए गए आदेश के अनुसरण में जब किसी व्यक्ति कोनिरुद्ध किया जाता है तब आदेश करने वाला प्राधिकारी यथाशक्य शीघ्र उस व्यक्ति को यह संसूचित करेगा कि वह आदेश किन आधारों पर किया गया है और उस आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिए उसे शीघ्रातिशीघ्र अवसर देगा ।
          (6) खंड (5) की किसी बात से ऐसा आदेश, जो उस खंड में निर्दिष्ट है, करने वाले प्राधिकारी के लिए ऐसे तथ्यों को प्रकट करना आवश्यक नहीं होगा जिन्हें प्रकट करना ऐसा  प्राधिकारी लोकहित के विरुद्ध समझता है ।
          (7) संसद् विधि द्वारा विहित कर सकेगी कि--
          (क) किन परिस्थितियों के अधीन और किस वर्ग या वर्गों के मामलों में किसी व्यक्ति  को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन तीन मास से अधिक अवधि के लिए  खंड (4) के उपखंड  (क) के उपबंधों के अनुसार सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किए बिना निरुद्ध किया जा सकेगा ;
          (ख) किसी वर्ग या वर्गों के मामलों में कितनी अधिकतम अवधिके लिए किसी व्यक्ति को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन निरुद्ध किया जा सकेगा ; और
          (ग) खंड (4) के उपखंड (क) के अधीन की जाने वाली जांच में सलाहकार बोर्ड द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया क्या होगी ।
          शोषण के विरुद्ध अधिकार
          23. मानव के दुएर्याफार और बलातश्रम  का प्रतिषेध--(1) मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलातश्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबंध  का कोई भी उल्लंघन अपराध  होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा ।
          (2) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा ।
          24. कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध --चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए  नियोजित नहीं  किया जाएगा  या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा ।
          धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार
          25. अंतःकरण की और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता--(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए , सभी व्यक्तियों को अंतःकरणकी स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा ।
          (2) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी किसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर   प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई किसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो--
          (क) धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आार्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बन्धन करती है ;
          (ख) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए  या सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए  खोलने का उपबंध करती है ।
          स्पष्टीकरण 1--कॄपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा  ।
          स्पष्टीकरण 2--खंड (2) के उपखंड (ख) में हिन्दुओं  के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तदनुसार लगाया जाएगा  ।
          26. धार्मिक  कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता--लोक व्यवस्था  सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए , प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को--
          (क) धार्मिक  और पूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थाफना और पोषण का,
          (ख) अफने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का,
          (ग) जंगम और स्थावर संपत्ति के अर्जन और स्वामित्व का, और
          (घ) किसी  संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का, अधिकार होगा ।
          27. किसी विशिष्ट धर्म की अभिवॄद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता--किसी भी व्यक्ति को ऐसे करों का संदाय करने के लिए  बाध्य नहीं  किया जाएगा  जिनके आगम किसी विशिष्ट धर्म या धार्मिक संप्रदाय की अभिवॄद्धि या पोषण  में व्यय करने के लिए  विनिर्दिष्ट रूप से विनियोजित किए जाते हैं।
          28. कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता--(1) राज्य-निधि से फूर्णतः पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी ।
          (2) खंड (1) की कोई बात किसी  शिक्षा संस्था को लागू नहीं होगी जिसका प्रशासन राज्य करता है किंतु जो किसी ऐसे विन्यास या न्यास के अधीन स्थापित हुई है जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है ।
          (3) राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य-निधि से सहायता फाने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति  को किसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए या किसी संस्था में या उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहीं  किया जाएगा जब तक कि उस व्यक्ति ने, या यदि वह अवयस्क है तो उसके संरक्षक ने, इसके लिए अफनी सहमति नहीं  दे दी है ।
          संस्कॄति और शिक्षा संबंधी अधिकार
          29. अल्फसंख्यक-वर्गों के हितों का संरक्षण--(1) भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कॄति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा ।
          (2) राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा ।
          30. शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्फसंख्यक-वर्गों का अधिकार--(1) धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्फसंख्यक-वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा ।
          [15][(1क) खंड (1) में निर्दिष्ट किसी अल्फसंख्यक-वर्ग द्वारा स्थापित  और प्रशासित शिक्षा संस्था की संपत्ति  के अनिवार्य अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधि बनाते समय, राज्य यह सुनिाश्चित करेगा कि ऐसी संपत्ति के अर्जन के लिए  ऐसी  विधि द्वारा नियत या उसके अधीन अवधारित रकम इतनी हो कि उस खंड के अधीन प्रत्याभूत अधिकार निर्बान्धित या निराकॄत न हो जाए ।]
          (2) शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसीशिक्षा संस्था के विरुद्ध इस आधार पर   विभेद नहीं   करेगा कि वह धर्म या भाषा पर   आधारित किसी अल्फसंख्यक-वर्ग के प्रबंध में है ।
          2[16]। । ।
          31. [संपत्ति का अनिवार्य अर्जन ।]--संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 6 द्वारा (20-6-1979 से) निरसित ।
          [17][कुछ विधियों की व्यावृति]
          [18][31क. संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृति –[19][(1) अनुच्छेद 13 में अंतार्वि−ट किसी बात के होते हुए भी,--
          (क) किसी संपदा  के या उसमें किन्हीं  अधिकारों के राज्य द्वारा अर्जन के लिए या किन्हीं ऐसे अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए, या
          (ख) किसी संपत्ति का प्रबंध लोकहित में या उस संपत्ति का उचित प्रबंध सुनिाश्चित करने के उद्देश्य से परिसीमित अवधि के लिए राज्य द्वारा ले लिए जाने के लिए, या
          (ग) दो या अधिक निगमों को लोकहित में या उन निगमों में से किसी का उचित प्रबंध सुनिाश्चित करने के उद्देश्य से समामेलित करने के लिए , या
          (घ) निगमों के प्रबंध अभिकर्ताओं, सचिवों और कोषाध्यक्षों, प्रबंध निदेशकों, निदेशकों या प्रबंधकों के किन्हीं अधिकारों या उनके शेयरधारकों के मत देने के किन्हीं अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए, या
          (ङ) किसी खनिज या खनिज तेल की खोज करने या उसे प्राप्त करने के प्रयोजन के लिए  किसी करार, पट्टे या अनुज्ञाप्ति के आधार पर   प्रोद्भूत होने वाले किन्हीं अधिकारों के निर्वापन या उनमें परिवर्तन के लिए या किसी ऐसे करार, पट्टे या अनुज्ञाप्ति को समय से फहले समाप्त करने या रद्द करने के लिए, उपबंध करने वाली विधि इस आधार पर शून्य नहीं समझी जाएगी कि वह [20][अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19] द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसे छीनती है या न्यून करती है :
          परंतु जहां ऐसी  विधि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई गई विधि है वहां इस अनुच्छेद के उपबंध  उस विधि को तबतक लागू नहीं होंगे जब तक ऐसी विधि को, जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखी गई है, उसकी अनुमति प्राप्त नहीं हो गई है :]
          [21][परंतु यह और कि जहां किसी विधि में किसी संपदा के राज्य द्वारा अर्जन के लिए कोई उपबंध किया गया है और जहां उसमें समाविष्ट कोई भूमि किसी व्यक्ति की अपनी जोत में है वहां राज्य के लिए ऐसी भूमि के ऐसे भाग को, जो किसी तत्समयप्रवॄत्त विधि के अधीन उसको लागू अधिकतम सीमा के भीतर है, या उस पर   निार्मित या उससे अनुलग्न किसी भवन या संरचना को अर्जित करना उस दशा के सिवाय विधिफूर्ण नहीं होगा जिस दशा में ऐसी  भूमि, भवन या संरचनाके अर्जन से संबंधित विधि उस दर से प्रतिकर के संदाय के लिए  उपबंध  करती है जो उसके बाजार-मूल्य से कम नहीं होगी ।]
          (2) इस अनुच्छेद में,--
          [22][(क) “संपदा ” पद का किसी स्थानीय क्षेत्र के संबंध में वही अर्थ है जो उस पद का या उसके समतुल्य स्थानीय पद का उस क्षेत्र में प्रवॄत्त भू-धॄतियों से संबंधित विद्यमान विधि में है और इसके अंतर्गत—
          (त्) कोई जागीर, इनाम या मुआफी अथवा वैसा ही अन्य अनुदान और [23][तमिलनाडु] और केरल राज्यों में कोई जन्मम् अधिकार भी होगा ;
          (त्त्) रैयतबाडी , बंदोबस्त के अधीन धॄत कोई भूमि भी होगी ;
          (त्त्त्) कृषि के प्रयोजनों के लिए  या उसके सहायक प्रयोजनों के लिए धॄत या पट्टे पर  दी गई कोई भूमि भी होगी, जिसके अंतर्गत बंजर भूमि, वन भूमि, चरागाह या भूमि के कृषकों, कृषि श्रमिकों और ग्रामीण कारीगरों के अधिभोग में भवनों और अन्य संरचनाओं के स्थल हैं ;]
          (ख) “अधिकार” पद के अंतर्गत, किसी संपदा के संबंध में, किसी स्वत्वधारी, उफ-स्वत्वधारी, अवर स्वत्वधारी, भूधॄतिधारक, [24][रैयत , अवर रैयत] या अन्य मध्यवर्ती में निहित कोई अधिकार और भू-राजस्व के संबंध में कोई अधिकार या विशेषाधिकार होंगे ।
          [25][31ख. कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्यकरण--अनुच्छेद 31क में अंतर्विष्ट उपबंधों की व्यापकता परप्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, नवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट अधिनियमों और विनियमों में से और उनके उपबंधों में से कोई इस आधारपर  शून्य या कभी शून्य हुआ नहीं समझा जाएगा  कि वह अधिनियम, विनियम या उपबंध इस भाग के किन्हीं उपबंधों द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसे छीनता है या न्यून करता है और किसी न्यायालय या अधिकरण के किसी प्रतिकूल निर्णय, डिक्री या आदेश के होते हुए भी, उक्त अधिनियमों और विनियमों में से प्रत्येक, उसे निरसित या संशोधित करने की किसी सक्षम विधान-मंडल की शक्ति के अधीन रहते हुए , प्रवॄत्त बना रहेगा ।]
          [26][31ग. कुछ निदेशक तत्त्वों को प्रभावी करने वाली विधियों की व्यावॄत्ति--अनुच्छेद 13 में किसी बात के होते हुए  भी, कोई विधि, जो [27][भाग 4 में अधिकथित सभी या किन्हीं  तत्त्वों] को सुनिाश्चित करने के लिए  राज्य की नीति को प्रभावी करनेवाली है, इस आधार पर शून्य नहीं समझी जाएगी कि वह [28][अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19] द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी सेअसंगत है या उसे छीनती है या न्यून करती है[29]और कोई विधि, जिसमें यह घोषणा है कि वह ऐसी नीति को प्रभावी करने केलिए है, किसी न्यायालय में इस आधारपर प्रश्नगत नहीं  की जाएगी कि वह ऐसी  नीति को प्रभावी नहीं  करती है:
          परंतु जहां ऐसी  विधि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई जाती है वहां इस अनुच्छेद के उपबंध उस विधि को तब तक लागू नहीं होंगे जब तक ऐसी विधि को, जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखी गई है, उसकी अनुमति प्राप्त नहीं   हो गई है ।]
          [30]31घ. [राष्ट्र विरोधी क्रियाकलाप के संबंध में विधियों की व्यावॄत्ति।]--संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 2 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित ।
          सांविधानिक उपचारों का अधिकार
          32. इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए  उपचार--(1) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तितकराने के लिए  समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है ।
          (2) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवार्तित कराने के लिए  उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी ।
          (3) उच्चतम न्यायालय को खंड (1) और खंड (2) द्वारा प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद्, उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (2) के अधीन प्रयोक्तव्य किन्हीं या सभी शक्तियों का किसी अन्य न्यायालय को अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रयोग करने के लिए विधि द्वारा सशक्त  कर सकेगी ।
          (4) इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत अधिकार निलंबित नहीं  किया जाएगा  ।
          [31]32क. [राज्य विधियों की सांविधानिक वैधता पर  अनुच्छेद 32 के अधीन कार्यवाहियों में विचार न किया जाना ।]--संविधान (तैंतालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1977 की धारा 3 द्वारा (13-4-1978 से) निरसित ।
          [32][33. इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों का, बलों आदि को लागू होने में, उपांतरण करने की संसद् की शक्ति --संसद्, विधि द्वारा, अवधारण कर सकेगी कि इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से कोई,--
          (क) सशस्त्र बलों के सदस्यों को, या
          (ख) लोक व्यवस्था बनाए रखने का भारसाधन करने वाले बलों के सदस्यों को, या
          (ग) आसूचना या प्रति आसूचना के प्रयोजनों के लिए राज्य द्वारा स्थापित किसी ब्यूरो या अन्य संगठन में नियोजित व्यक्तियों को, या
          (घ) खंड (क) से खंड (ग) में निर्दिष्ट किसी बल, ब्यूरो या संगठन के प्रयोजनों के लिए स्थापित दूरसंचार प्रणाली में या उसके संबंध में नियोजित व्यक्तियों को, लागू होने में, किस विस्तार तक निर्बान्धित या निराकॄत किया जाऋ जिससे उनके कर्तएयों का उचित फालन और उनमें अनुशासन बना रहना सुनिाश्चित रहे ।]
          34. जब किसी क्षेत्र में सेना विधि प्रवॄत्त है तब इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों पर  निर्बन्धन--इस भाग के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, संसद् विधि द्वारा संघ या किसी राज्य की सेवा में किसी व्यक्ति की या किसी अन्य व्यक्ति की किसी ऐसे  कार्य के संबध में क्षतिपूर्ति कर सकेगी जो उसने भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी ऐसे क्षेत्र में, जहां सेना विधि प्रवॄत्त थी, व्यवस्था के बनाए रखने या पुनःस्थापन के संबंध में किया है या ऐसे  क्षेत्र में सेना विधिके अधीन पारित दंडादेश, दिए गए दंड, आदिष्ट समपहरण या किए गए अन्य कार्य को विधिमान्य कर सकेगी ।
          35. इस भाग के उफबंधों को प्रभावी करने के लिए विधान--इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी,--
          (क) संसद् को शक्ति  होगी और किसी राज्य के विधान-मंडल को शक्ति नहीं होगी कि वह—
          (त्) जिन विषयों के लिए अनुच्छेद 16 के खंड (3), अनुच्छेद 32 के खंड (3), अनुच्छेद 33 और अनुच्छेद 34 के अधीन संसद् विधि द्वारा उपबंध कर सकेगी उनमें से किसी के लिए, और
          (त्त्) ऐसे  कार्यों के लिए, जो इस भाग के अधीन अफराध घोषित किए गए हैं, दंड विहित करने के लिए, विधि बनाए और संसद् इस संविधान के प्रारंभ के फश्चात् यथाशक्य शीघ्र ऐसे  कार्यों के लिए, जो उपखंड (त्त्) में निर्दिष्ट हैं, दंड विहित करने के लिए विधि बनाएगी ;
          (ख) खंड (क) के उपखंड (त्) में निर्दिष्ट विषयों में से किसी से संबंधित या उस खंड के उफखंड (त्त्) में निर्दिष्ट किसी कार्य के लिए दंड का उपबंध करने वाली कोई प्रवॄत्त विधि, जो भारत के राज्यक्षेत्र में इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रवॄत्त थी, उसके निबंधनों के और अनुच्छेद 372 के अधीन उसमें किए गए किन्हों अनुकूलनों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए तब तक प्रवॄत्त रहेगी जब तक उसका संसद् द्वारा परिवर्तन या निरसन या संशोधन नहों कर दिया जाता है ।
          स्पष्टीकरण--इस अनुच्छेद में, “प्रवॄत्त विधि” पद का वही अर्थ है जो अनुच्छेद 372 है ।


          [1] संविधान (चौबीसवां संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित ।
          [2] संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 2 द्वारा जोड़ा गया ।
          [3] संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 29 और अनुसूची द्वारा “पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य के या उसके क्षेत्र में किसी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी के अधीन उस राज्य के भीतर निवास विषयक कोई अपेक्षा विहित करती हो” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
          [4] संविधान (सतहत्तरवां संशोधन) अधिनियम, 1995 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित ।
          [5] संविधान (पचासीवां संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 2 द्वारा (17-6-1995) से कुछ शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित
          [6] संविधान (इकक़्यासीवां संशोधन) अधिनियम, 2000 की धारा 2 द्वारा (9-6-2000 से) अंतःस्थापित ।
          [7] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 2 द्वारा (20-6-1979 से) अंतःस्थापित ।
          [8] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 2 द्वारा (20-6-1979 से) उपखंड (च) का लोप किया गया
          [9] संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 3 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) खंड (2) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
          [10] संविधान (सोलहवां संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित ।
          [11] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 2 द्वारा (20-6-1979 से) “उफखंड (घ), उपखंड (ङ) और उफखंड (च)” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
          [12] संविधान (फहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 3 द्वारा कुछ शब्दों के स्थान फर प्रतिस्थापित ।
          [13] संविधान (छियासीवां संशोधन) अधिनियम, 2002 की धारा 2 द्वारा (अधिसूचना की तारीख से) अंतःस्थापित किया जाएगा ।
          [14] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 3 के प्रवार्तित होने पर, अनुच्छेद 22 उस अधिनियम की धारा 3 में निदेशित रूप में संशोधित हो जाएगा । उस अधिनियम की धारा 3 का पाठ परिशिष्ट 3 में देखिए ।
          [15] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 4 द्वारा (20-6-1979 से) अंतःस्थापित ।
          [16] संविधान (चवासीलवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 5 द्वारा (20-6-1979 से) उपशीर्षक “संपत्ति का अधिकार” का लोप किया गया।
          [17] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 3 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित ।
          [18] संविधान (फहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 4 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) अंतःस्थापित ।
          [19] संविधान (चौथा संशोधन) अधिनियम, 1955 की धारा 3 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) खंड (1) के स्थान फर प्रतिस्थापित ।
          [20] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 7 द्वारा (20-6-1979 से) “अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 31” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
          [21] संविधान (सत्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1964 की धारा 2 द्वारा अंतःस्थापित ।
          [22] संविधान (सत्रहवां संशोधन) अधिनियम, 1964 की धारा 2 द्वारा (भूतलक्षीप्रभाव से) उफखंड (क) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
          [23] मद्रास राज्य (नाम-फरिवर्तन) अधिनियम, 1968 (1968 का 53) की धारा 4 द्वारा (14-1-1969 से) “मद्रास” के स्थान फर प्रतिस्थापित ।
          [24] संविधान (चौथा संशोधन) अधिनियम, 1955 की धारा 3 द्वारा (भूतलक्षी प्रभाव से) अंतःस्थापित ।
          [25] संविधान (फहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 5 द्वारा अंतःस्थापित
          [26] संविधान (फच्चीसवां संशोधन) अधिनियम, 1971 की धारा 3 द्वारा (20-4-1972 से) अंतःस्थापित ।
          [27] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 4 द्वारा (3-1-1977 से) “अनुच्छेद 39 के खंड (ख) या खंड (ग) में विनिर्दिष्ट सिद्धांतों” के स्थान पर प्रतिस्थापित । धारा 4 को उच्चतम न्यायालय द्वारा, मिनर्वा मिल्स लि0 और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1980) 2 एस0सी0सी0 591 में अविधिमान्य घोषित कर दिया गया ।
          [28] संविधान (चवालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 8 द्वारा (20-6-1979 से) “अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 31” के स्थान
          पर प्रतिस्थापित ।
          [29] उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) अनुपूरक एस.सी.आर. 1 में कोष्ठक में दिए गए उपबंध को अविधिमान्य घोषित कर दिया है ।
          [30] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 5 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित ।
          [31] संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 6 द्वारा (1-2-1977 से) अंतःस्थापित ।
          [32] संविधान (पचासवां संशोधन) अधिनियम, 1984 की धारा 2 द्वारा अनुच्छेद 33 के स्थान पर प्रतिस्थापित ।