Friday 27 May 2016

केंद्रीय सूचना आयोग Central Information Commission - CIC

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का अध्याय-तीन, एक केंद्रीय सूचना आयोग तथा अध्याय-चार में राज्य सूचना आयोग के गठन का प्रावधान करते हैं। सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा-12 में केंद्रीय सूचना आयोग के गठन, धारा-13 में सूचना आयुक्तों की पदावधि एवं सेवाशर्ते तथा धारा-14 में उन्हें पद से हटाने संबंधी प्रावधान किए गए हैं।
केंद्रीय सूचना आयोग में एक अध्यक्ष अर्थात् मुख्य सूचना आयुक्त तथा अधिकतम 10 केंद्रीय सूचना आयुक्तों का प्रावधान है। इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। यह नियुक्ति प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में बनी समिति, जिसमें लोकसभा में विपक्ष का नेता और प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत एक संघीय कैबिनेट मंत्री बतौर सदस्य होते हैं, की अनुशंसा पर की जाती है।
मुख्य सुचना आयुक्त एवं अन्य सुचना आयुक्तों का चयन सार्वजानिक सार्वजनिक जीवन में उत्कृष्टता प्राप्त ऐसे व्यक्तियों में से किया जाता है जिन्हें विधि, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, समाज सेवा, प्रबंध, पत्रकारिता, जनसंचार या प्रशासन एवं शासन के क्षेत्र में व्यापक ज्ञान और अनुभव प्राप्त हो। आयोग का मुख्यालय नाइ दिल्ली में होगा किन्तु आयोग केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त कर भारत में अन्यत्र भी अपने कार्यालय स्थापित कर सकेगा।
सूचना आयोग की शक्तियां एवं कृत्य
सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा- 18-20 तक में निम्नांकित शक्तियां एवं कृत्य केंद्रीय सूचना आयोग एवं राज्य सूचना आयोग को सौंपे गए हैं-
  • अधिनियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए आयोग निम्न में से किसी ऐसे व्यक्ति से शिकायत प्राप्त करे और उसकी जांच करे
  1. यदि वह लोक सूचना अधिकारी को आवेदन प्रस्तुत करने में इसलिए असमर्थ रहा है कि ऐसे अधिकारी की नियुक्ति नहीं हुई है या सहायक लोक सूचना अधिकारी ने आवेदन या अपील को अग्रेषित करने से इंकार किया है।
  2. जिसे इस अधिनियम के अधीन मांगी गई कोई सूचना तक पहुंच से इंकार किया गया हो।
  3. जिसे इस अधिनियम के अधीन निर्धारित समय-सीमा के भीतर सूचना के लिए या सूचना तक पहुंच के लिए आवेदन का उत्तर नहीं दिया गया है।
  4. जिससे ऐसी फीस की राशि अदा करने की अपेक्षा की गई है, जो वह अनुचित समझता है।
  5. जो यह विश्वास करता है कि उसे इस अधिनियम के अधीन अपूर्ण, भ्रम में डालने वाली या मिथ्या सूचना दी गई है।
  6. इस अधिनियम के अधीन अभिलेखों के लिए अनुरोध करने या उन तक पहुंच प्राप्त करने से संबंधित किसी अन्य विषय के संबंध में।
  • आयोग का यह विनिश्चय हो जाता है कि किस प्रकरण में जांच के लिए युक्तिसंगत आधार हैं तो वह उसके संबंध में जांच आरंभ कर सकेगा।
  • आयोग को किसी वाद के विचरण के समय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत दीवानी न्यायालय की निम्नांकित शक्तियांप्राप्त (निहित) होंगी
  1. किसी व्यक्ति को बुलाने और उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने, लिखित या मौखिक गवाही लेने तथा शपथ पर परीक्षण करने;
  2. किसी दस्तावेज की तलाश करवाने और उसे पेश करवाने;
  3. शपथ पत्रों पत्र साक्ष्य लेने;
  4. किसी भी अदालत अथवा कार्यालय से कोई सार्वजनिक अभिलेख या उसकी प्रति प्राप्त करने;
  5. साक्षियों और प्रलेखों के परीक्षण के लिए आदेश करने; तथा
  6. अन्य कोई मामला जो दिया जाए, के संबंध में आवश्यक पहल करने की शक्तियां आयोग को प्राप्त होंगी।
  • इस अधिनियम के अधीन किसी शिकायत की जांच करते समय आयोग, ऐसे किसी अभिलेख का परीक्षण कर सकेगा जिस पर यह अधिनियम लागू होता है और जो लोकप्राधिकारी के नियंत्रण में है। संसद या राज्य विधायिका का कोई अन्य कानून, आयोग को ऐसा करने से नहीं रोक सकेगा।
  • अधिनियम की धारा-19 के तहत् कोई व्यक्ति जिसे निर्धारित समय में निर्णय प्राप्त नहीं हुआ है, या वह प्राप्त निर्णय से व्यथित है तो वह लोक प्राधिकरण में लोक सूचना अधिकारी की पंक्ति में ज्येष्ठ पंक्ति का है, को 30 दिन में अपील कर सकेगा।
  • आयोग के निर्णय बाध्यकारी होंगे।
  • निर्णय हेतु आयोग को निम्न शक्तियां प्राप्त होंगी–
  1. लोक प्राधिकरण से ऐसे उपाय कराना जो इस अधिनियम के सम्मिलित हैं-
  • सूचना तक पहुंच उपलब्ध कराना, यदि विशिष्ट रूप से प्रार्थना की गई है;
  • लोक सूचना अधिकारी को नियुक्त करना;
  • कतिपय सूचना या सूचना के प्रवर्गों को प्रकाशित करना;
  • अभिलेखों के संधारण, प्रबंधन तथा नष्ट करने से संबंधित पद्धतियों में आवश्यक परिवर्तन करना;
  • अपने अधिकारियों के लिए सूचना का अधिकार संबंधी प्रशिक्षण का प्रावधान करना; और
  • सूचना के अधिकार से संबंधित एक वार्षिक रिपोर्ट उपलब्ध कराना।
  1. लोक प्राधिकारी से, शिकायतकर्ता की, उसके द्वारा वहन की गई किसी हानि या अन्य नुकसान के लिए क्षतिपूर्ति करना;
  2. इस अधिनियम के अधीन उपबंधित शास्त्रियों में से कोई शास्ति अधिरोपित करना;
  3. आवेदन को अस्वीकृत करना
  4. आयोग शिकायतकर्ता और प्राधिकारी को अपने निर्णय की, जिसके अंतर्गत अपील का कोई अधिकार भी है, सूचना देगा।
  5. आयोग, अपील का निर्णय ऐसी प्रक्रियानुसार करेगा, जो निर्धारित की जाए।
  • आयोग की राय में यदि लोक सूचना अधिकारी द्वारा बिना युक्तियुक्त कारण के आवेदन लेने से इंकार किया गया हो, निर्धारित समय में सूचना नहीं दी गई हो, या असद्भावनापूर्वक सूचना का आवेदन से इंकार किया गया हो या जानबूझकर गलत, अपूर्ण या भ्रामक सूचना दी गई है या ऐसी सूचना नष्ट कर दी है जो आवेदन से संबंधित थी, या सूचना देने की प्रक्रिया में बाधा डाली गई है तो आवेदन प्राप्ति या सूचना देने के दिन से 250 रुपए प्रतिदिन की शास्ति अधिरोपित की जाएगी।

राष्ट्रीय महिला आयोग National Commission for Women

आयोग की सर्वोच्च प्राथमिकता महिलाओं की त्वरित गति से न्याय दिलाना है।
प्रथम आयोग 31 जनवरी, 1992 को श्रीमती जयंती पटनायक की अध्यक्षता में गठित किया गया।
राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष का मनोनयन केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है। अध्यक्ष के अतिरिक्त आयोग में पांच अन्य सदस्य होते जिनका मनिनयन केंद्र सरकार द्वारा योग्य, न्यायविदों, ट्रेड यूनियनों, औद्योगिक क्षेत्र, महिलाओं से सम्बन्धित स्वैच्छिक संगठनों, प्रशासन, आर्थिक विकास, स्वास्थ्य, शैक्षिक अथवा सामाजिक कल्याण क्षेत्रों से किया जाता है। इनमें से किसी एक सदस्य का अनुसूचित जाति एवं जनजाति से सम्बन्धित होना अनिवार्य है।
राष्ट्रीय महिला आयोग के कृत्य एवं दायित्व द्वारा प्रमुख रूप से निम्नलिखित कृत्यों का निर्वहन् किया जाता है-
  • महिलाओं के कल्याण से सम्बन्धित संविधान के अंतर्गत वर्णित प्रावधानों एवं अन्य कानूनों से सम्बंधित समस्त मामलों की जांच-पड़ताल करना।
  • प्रतिवर्ष अथवा आयोग जब भी उचित समझे, केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रेषित करना।
  • अपनी रिपोर्ट के माध्यम से महिलाओं की दशा सुधारने हेतु संघ अथवा राज्य सरकारों द्वारा किए गए रक्षोपायों के प्रभावी क्रियान्वयन हेतु आवश्यक संस्तुतियां करना।
  • महिलाओं को प्रभावित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों का समय-समय पर पुनरीक्षण करना और आवश्यक होने पर उनमें संशोधन किए जाने की सिफारिश करना।
  • शिकायतों को देखना तथा निम्नलिखित मामलों में नोटिस जारी करना-
  1. महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन;
  2. महिला संरक्षण, विकास एवं समानता सम्बन्धी रक्षोपायों का क्रियान्वयन न होना, तथा;
  3. महिलाओं को सुरक्षा एवं संतुष्टि प्रदान करने वाले नीतिगत निर्णयों, आदेशों, इत्यादि का क्रियान्वयन न होना।
  • महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक विकास हेतु योजना प्रक्रिया में सहभागिता तथा परामर्श प्रदान करना।
  • किसी भी राज्य अथवा संघ में महिलाओं के विकास का मूल्यांकन करना।
  • महिलाओं की स्थिति पर सरकार के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
  • केंद्र सरकार द्वारा सौंपे गए किसी मामले को देखना।
राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) का आलोचनात्मक मूल्यांकन
यद्यपि आयोग अपने गठन के समय से ही महिलाओं की दशा सुधारने का यंत्र रहा है, हालांकि इस पर अक्सर लाल फीताशाही, द्वेषपूर्ण एवं पुरातन दृष्टिकोण रखने के आरोप लगते रहे हैं। आयोग  को बिना दांत का शेर भी कहा जाता है। यह इसलिए है क्योंकि कई कानून एवं आयोग के रूप में एक पृथक् संविधिक निकाय के बावजूद यह अपराधों का पता लगाने एवं उन पर कार्रवाई करने और महिला की राहत दिलाने में नाकाम रहा है।
आयोग के वास्तविक कार्यकरण से प्रतीत होता है कि यह अध्यक्ष के इर्द-गिर्द घूमने वाला निकाय है। इसके अनुरूप, आयोग की भूमिका के बारे में विभिन्न अवधारणाएं रही हैंऔर तिन वर्ष के लिए प्रत्येक आयोग इन अवधारणाओं को प्रतिम्बित करता है। परिणामस्वरूप, प्रत्येक अध्यक्ष के कार्यकाल में आयोग विभिन्न एवं अलग मामले पर ध्यान केंद्रित करता है और उस पर काम करता है और अक्सर यह पाया जाता है कि एक अध्यक्ष वाले आयोग से दूसरे अध्यक्ष वाले आयोग के कार्यो में किसी प्रकार की निरंतरता नहीं होती।
एनसीडब्ल्यू की स्थापना बीजिंग प्लेटफार्म के तीन उद्देश्योंको ध्यान में रखते हुए की गई थी-
  1. महिलाओं के विरुद्ध हिंसा रोकने एवं इसका उन्मूलन करने के लिए समन्वित उपाय करना।
  2. महिला हिंसा के परिणामों एवं कारणों का अध्ययन करना एवं रोकथाम उपायों की प्रभाविकता का अध्ययन करना।
  3. महिलाओं के देह व्यापार का उन्मूलन करना और देह व्यापार एवं वेश्यावृति से पीड़ित महिलाओं की मदद करना।
समय की आवश्यकता है की महिलाओं के विरुद्ध बढती हिंसा को रोकने के लिए आयोग की अधिकाधिक शक्तियां दी जाएं।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग National Human Rights Commission

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना सरकार द्वारा अक्टूबर 1993 में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के अधीन की गई थी। आयोग में कुल आठ सदस्य होते हैं- एक अध्यक्ष, एक वर्तमान अथवा पूर्व सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश, एक वर्तमान अथवा भूतपूर्व उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, मानवाधिकार के क्षेत्र में जानकारी रखने वाले कोई दो सदस्य तथा राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचितजाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग एवं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष। इसके अध्यक्ष सहित सभी सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है।
राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित एक समिति की संस्तुति पर किया गया था। इस समिति के अन्य सदस्य थे- लोक सभा अध्यक्ष, गृह मंत्री, सदन में विपक्ष के नेता तथा राज्य सभा के उप-सभापति। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया जा सकता है।
लोक संहिता प्रक्रिया, 1908 (code of civil procedure, 1908) के अधीन आयोग को सिविल न्यायालय की समस्त शक्तियां प्राप्त हैं। आयोग अपने समक्ष प्रस्तुत किसी पीड़ित अथवा उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दायर किसी याचिका पर स्वयं सुनवाई एवं कार्यवाही कर सकता है। इसके अतिरिक्त आयोग न्यायालय की स्वीकृति से न्यायालय के समक्ष लम्बित मानवाधिकारों के प्रति हिंसा सम्बन्धी किसी मामले में हस्तक्षेप कर सकता है। आयोग की यह शक्ति प्राप्त है कि वह सम्बन्धित अधिकारियों को पूर्वसूचित करके किसी भी कारागार का निरीक्षण कर सके अथवा परिस्थितियों के अनुसार अन्य नौकरशाहों को कारागारों के निरीक्षण सम्बन्धी अपनी शक्ति का प्रत्यायोजन (delegate) कर दे। आयोग द्वारा मानवाधिकारों से सम्बन्धित संधियों इत्यादि का अध्ययन किया जाता है तथा उन्हें और अधिक प्रभावी बनाने सम्बन्धी आवश्यक संस्तुतियां भी की जाती हैं। साधारणतः, आयोग द्वारा स्वीकृत की जाने वाली मानवाधिकारों के उल्लंघन सम्बन्धी याचिकाओं की प्रकृति इस प्रकार की होनी चाहिए-
  1. घटना शिकायत करने से एक वर्ष से अधिक समय पूर्व घटित होनी चाहिए;
  2. शिकायत अर्द्ध-न्यायिक प्रकार की होनी चाहिए;
  3. शिकायत अनिश्चित, अज्ञात अथवा छंद्म नाम से होनी चाहिए;
  4. शिकायत तुच्छ प्रकृति की नहीं होनी चाहिए;
  5. आयोग के विस्तार से बाहर की शिकायतें नहीं होनी चाहिए, तथा;
  6. उपभोक्ता सेवाओं एवं प्रशासनिक नियुक्तियों से सम्बन्धित मामले।
आयोग में शिकायत दर्ज कराना अत्यंत सरल कार्य है। शिकायत निःशुल्क दर्ज की जाती है। आयोग द्वारा फैक्स और तार (telegraphic) द्वारा प्राप्त शिकायतें भी स्वीकार की जाती हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा प्रतिवर्ष देश में मानवाधिकारों की स्थिति से सम्बन्धित एक रिपोर्ट का प्रकाशन किया जाता है। इसके द्वारा इस रिपोर्ट को विधानसभा के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। जबकि राज्य मानवाधिकार आयोग द्वारा ऐसा प्रतिवेदन सम्बद्ध राज्य की विधान सभा के सम्मुख रखा जाता है।
मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 30 के अंतर्गत, मानव अधिकारों के उल्लंघन अपराध सम्बन्धी विवादो के त्वरित निपटान हेतु मानव अधिकार न्यायालय का गठन किया जा सकता है। न्यायालय में विवादों को सुलझाने हेतु सरकार अधिसूचना के माध्यम से एक पब्लिक प्रोसिक्यूटर की नियुक्ति करेगी जिसने 7 वर्षों तक अधिवक्ता के रूप में वकालत की हो।
सशस्त्र बालों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन सम्बन्धी शिकायतों के मामलों में आयोग स्वयं अपने संज्ञान पर अथवा किसी प्राप्त याचिका के आधार पर सरकार से मामले के सम्बन्ध में रिपोर्ट मांग सकता है। रिपोर्ट की प्राप्ति के पश्चात् सरकार की सिफारिशौं के अनुरूप आयोग शिकायत पर कार्यवाही को रोक सकता है तथा संघीय सरकार द्वारा उक्त मामले के संदर्भ में की गई कार्यवाही से आयोग को तीन माह अथवा आयोग द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर अवगत कराना अनिवार्य है।
आयोग की समीक्षा
आयोग ने निःसंदेह अपने खाते में कुछ उपलब्धियां दर्ज की हैं। यह केंद्र सरकार को यातना एवं क्रूर., अमानवीय एवं निम्न दण्ड या व्यवहार के अन्य स्वरूपों के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय पर हस्ताक्षर कराने हेतु मनाने में सफल हुआ। यह संरक्षा मृत्यु की समस्या को बेहतरीन तरीके से सामने लाया। इसने शैक्षिक एवं प्रशिक्षण संस्थानों में मानवाधिकारों पर विशिष्टिकृत प्रशिक्षण माड्यूल तैयार करने में भी मदद की है।
यह, हालांकि, महसूस किया जाता रहा है की आयोग अपनी पूर्ण शक्ति हासिल करने में सक्षम नहीं रहा है। वर्ष 1991 में संयुक्त राष्ट्र अधिकार संस्थान को व्यापक जनादेश; बहुलता रखनी चाहिए जिसमें प्रतिनिध्यात्मक संगठन; व्यापक पहुंच, प्रभाविकता; स्वतंत्रता; पर्याप्त संसाधन; और जांच की पर्याप्त शक्ति शामिल है।
मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 2(d) मानव अधिकारों को संविधान द्वारा प्रत्याभूत, जीवन समानता एवं वैयक्तिक  गरिमा से सम्बद्ध अधिकार के तौर पर परिभाषित करता है या वे अंतरराष्ट्रीय अभिसमय या संविदा में उल्लिखित होते हैं तथा भारत में न्यायालय द्वारा लागू कराए जाते हैं। इस प्रकार, कानून एनएचआरसी से सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों पर ध्यान लगाने की बजाय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों पर फोकस करने की अपेक्षा करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा है की मानव अधिकार आयोग सरकार पर नागरिकों को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय प्रदान कराने के लिए दबाव डालने की प्रभावी भूमिका निभा पाता।
आयोग की संरचना के संबंध में तीन आपतियां हैं। पहली, कानून ने चयन को संकीर्ण कर दिया है कि व्यक्ति को, केवल न्यायपालिका से सम्बद्ध होना चाहिए, मानवाधिकारों में किसी प्रकार की विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है। यह आयोग की परिप्रेक्ष्यों की बहुलता, विशेष रुझान एवं सभ्य समाज से विभिन्न अनुभवों को प्राप्त करने से रोकता है। दूसरे, अनुशंसा देने वाली समिति में राजनेता होते हैं। तीसरे, चयन की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। आयोग की संरचना आमतौर पर गोपनीय फाइलों में टिप्पणी करने या राजनेताओं और उनके पसंदीदा नौकरशाहों के बीच बंद दरवाजों के पीछे चल रही बैठकों के दौरान निर्णित होती है।
अधिनियम की धारा-11 के अनुसार, केंद्र सरकार आयोग को अनुसंधान, जांच, तकनीकी एवं प्रशासनिक कार्य के लिए अधिकारी एवं अन्य स्टाफ मुहैया कराएगी। कानून के इस प्रावधान से आयोग अपने कार्य की जरूरत के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर है।
आयोग में कार्य करने वाले अधिकतर अधिकारी एवं स्टाफ भारत सरकार के विभिन्न कार्यालयों से आते हैं। सरकारी कार्यालयों में काफी समय तक कार्य करने के बाद वे आयोग में आते हैं, जिससे उनकी एक निश्चित सोच, बदलावों के प्रति बेहद प्रतिरोध, कार्य की नौकरशाही पद्धति और बुरी आदतों का एक भारी-भरकम बैकलॉग होता है। उन्हें मानव अधिकार दर्शन के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है और न ही वे इसके लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
आयोग को एक निश्चित मात्रा में शिकायतें प्राप्त होती रहती हैं। हालांकि, अध्ययन प्रकट करता है कि अधिकतर शिकायतें तीन या चार राज्यों से ही प्राप्त होती हैं। अधिकारों के प्रति जागरूकता, मात्र कुछ राज्यों तक सीमित होने से, सूचित नहीं होती। लगभग आधे मामलों को प्रथम दृष्टया खारिज कर दिया जाता है। ये मामले वे होते हैं जो आयोग के चार्टर में नहीं आते या समयबद्ध होते हैं या अर्द्ध-न्यायिक प्रकृति के होते हैं। इस तरह लोगों में आयोग के चार्टर के बारे में बेहद अज्ञानता होती है।
आयोग में प्रत्येक वर्ष लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। आयोग को इसके कार्यों में पूरी तरह स्वतंत्र समझ जाता है, यद्यपि अधिनियम ऐसा उल्लेख नहीं करता। वास्तव में, अधिनियम में ऐसे प्रावधान हैं जो आयोग की सरकार पर निर्भरता को कम करते हैं। लेकिन आयोग अपने मानव संसाधन सम्बन्धी जरूरतों के लिए सरकार पर निर्भर है। तब बेहद महत्वपूर्ण बात वित्त की है। अधिनियम की धारा-32 के तहत् केंद्र सरकार, आयोग की अनुदान के तौर पर इतना पैसा देगी, जितना वह उपयुक्त समझे। इस प्रकार, मानव शक्ति एवं धन संबंधी जरूरतों, जो अत्यधिक महत्व के हैं, के परिप्रेक्ष्य में आयोग स्वतंत्र नहीं है।
सशस्त्र बालों के कर्मियों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामलों की शिकायत की जांच करने का अधिकार अधिनियम द्वारा आयोग की नहीं दिया गया है। क्योंकि मानव अधिकार उल्लंघन की शिकायतों की बड़ी तादाद सशस्त्र बलों के कर्मियों के खिलाफ होती हैं, स्वाभाविक रूप से इन मामलों में लोगों की शिकायतों के एनएचआरसी द्वारा निपटान में अधिनियम इसे कमजोर बना देता है।
आयोग को अपने निर्णयों को लागू करने की शक्ति नहीं है। अधिनियम की धारा-18 के अनुसार, आयोग द्वारा हुई जांच में मानव अधिकारों के उल्लंघन के मामले स्पष्ट होने पर, आयोग केवल दोषी व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही करने और पीड़ित को रहत देने की सरकार को सलाह दे सकता है। यदि कोई सरकार सलाह मानने से इंकार कर देती है तो कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो आयोग को इसकी सलाह को लागू करने के लिए सरकार को बाध्य करने को सशक्त करता हो।

मार्ले-मिन्टो सुधार Morley-Minto Reforms

भारत परिषद अधिनियम 1909 (Indian Councils Act 1909) को मार्ले-मिन्टो सुधारों के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस समय मार्ले भारत सचिव एवं लार्ड मिन्टो वायसराय थे। इन्हीं दोनों के नाम पर इसे मार्ले-मिन्टो सुधारों की संज्ञा दी गयी। सरकार द्वारा इन सुधारों को प्रस्तुत करने के पीछे मुख्य दो घटनाये थीं। अक्टूबर 1906 में आगा खां के नेतृत्व में एक मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल वायसराय लार्ड मिन्टो से मिला और मांग की कि मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन प्रणाली की व्यवस्था की जाए तथा मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाये। प्रतिनिधिमंडल ने तर्क दिया कि ‘उनकी साम्राज्य की सेवा’ के लिए उन्हें पृथक सामुदायिक प्रतिनिधित्व दिया जाये।
1906 में ढाका में नवाब सलीमुल्लाह, नवाब मोहसिन-उल-मुल्क और वकार-उल-मुल्क द्वारा मुस्लिम लीग की स्थापना की गयी थी। लार्ड मिन्टो से मिलने वाला यह प्रतिनिधिमंडल शीघ्र ही मुस्लिम लीग में सम्मिलित हो गया। मुस्लिम लीग ने मुसलमानों को साम्राज्य के प्रति निष्ठा प्रकट करने की शिक्षा दी तथा मुस्लिम बुद्धिजीवियों को कांग्रेस से पृथक रखने का प्रयास किया। इसके अतिरिक्त कांग्रेस द्वारा प्रतिवर्ष सुधारों की मांग करने, नरम दल को संतुष्ट करने, अतिवादियों के प्रभाव को कम करने तथा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद को रोकने के लिये भी सुधार किया जाना आवश्यक हो गया था।
मुख्य सुधारः 1909 के मार्ले-मिन्टो सुधारों की मुख्य धारायें इस प्रकार थीं-
  1. इस अधिनियम के अनुसार, केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गयी। प्रांतीय विधान परिषदों में गैर-सरकारी बहुमत स्थापित किया गया। किंतु गैर-सरकारी सदस्यों में नामांकित एवं बिना चुने सदस्यों की संख्या अधिक थी, जिसके कारण निर्वाचित सदस्यों की तुलना में अभी भी उनकी संख्या अधिक बनी रही।
  2. सुमित सरकार के अनुसार, केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा में 60 सदस्य और 9 पदेन सदस्य होते थे। इन 69 सदस्यों में से 37 सरकारी अधिकारी और 32 गैर-सरकारी सदस्य थे। 32 गैर-सरकारी सदस्यों में से 5 नामजद एवं 27 चुने हुये सदस्य थे। निर्वाचित 27 सदस्यों में से 8 सीटें पृथक् निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत मुस्लिमों के लिए आरक्षित थीं, जबकि 4 सीटें ब्रिटिश पूंजीपतियों के लिए तथा 2 सीटें जमींदारों के लिए आरक्षित थीं और 13 सीटें सामान्य निर्वाचन के अंतर्गत आती थीं।
  3. निर्वाचित सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते थे। स्थानीय निकायों से निर्वाचन परिषद का गठन होता था। ये प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों का निर्वाचन करती करते थे। प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्य केन्द्रीय व्यवस्थापिका के सदस्तों का निर्वाचन करते थे।
  4. इस अधिनियम द्वारा मुसलमानों के लिये पृथक सामुदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली लागू की गयी। साथ ही मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के मामले में विशेष रियायत दी गयी। उन्हें केंद्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषद में जनसंख्या के अनुपात में अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया। मुस्लिम मतदाताओं के लिये आय की योग्यता को भी हिन्दुओं की तुलना में कम रखा गया।
  5. व्यवस्थापिका सभाओं के अधिकारों में वृद्धि की गयी। सदस्यों को आर्थिक प्रस्तावों पर बहस करने, उनके विषयों में संशोधन प्रस्ताव रखने, उनको कुछ विषयों पर मतदान करने, प्रश्न पूछने, साधारण प्रश्नों पर मतदान करने, साधारण प्रश्नों पर बहस करने तथा सार्वजनिक हित के प्रस्तावों को प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया। व्यवस्थापिकाओं को इतने अधिकार देने के पश्चात भी गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों को व्यवस्थापिकाओं में प्रस्तावों को ठुकराने का अधिकार था।
  6. गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में एक भारतीय सदस्य को नियुक्त करने की व्यवस्था की गयी। पहले भारतीय सदस्य के रूप में सत्येंद्र सिन्हा को नियुक्त किया गया।
सुधार की समीक्षा
1909 के सुधारों से भारतीय राजनैतिक प्रश्न का न कोई हल हो सकता था न ही इससे वह निकला। अप्रत्यक्ष चुनाव, सीमित मताधिकार तथा विधान परिषद की सीमित शक्तियों ने प्रतिनिधि सरकार को मिश्रण सा बना दिया। लार्ड मार्ले ने स्पष्ट तौर पर कहा कि भारत स्वशासन के योग्य नहीं है। कांग्रेस द्वारा प्रतिवर्ष स्वशासन की मांग करने के पश्चात भी मार्ले ने स्पष्ट तौर पर उसे ठुकरा दिया। उसने भारत में संसदीय शासन व्यवस्था या उत्तरदायी सरकार की स्थापना का स्पष्ट विरोध किया। उसने कहा ‘यदि यह कहा जाये कि सुधारों के इस अध्याय से भारत में सीधे अथवा अवश्यंभावी संसदीय व्यवस्था स्थापित करने अथवा होने में सहायता मिलेगी तो मेरा इससे कोई संबंध नहीं होगा’ ।
वास्तव में 1909 के सुधारों का मुख्य उद्देश्य उदारवादियों को दिग्भ्रमित कर राष्ट्रवादी दल में फूट डालना तथा साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को अपना कर राष्ट्रीय एकता को विनष्ट करना था। सरकार इन सुधारों द्वारा नरमपंथियों एवं मुसलमानों को लालच देकर राष्ट्रवाद के उफान को रोकना चाहता थी। सरकार एवं मुस्लिम नेताओं ने जब भी द्विपक्षीय वार्ता की, उसका मुख्य विषय पृथक निर्वाचन प्रणाली ही रहा किंतु वास्तव में इस व्यवस्था से मुसलमानों का छोटा वर्ग ही लाभान्वित हो सका।
इस अधिनियम के अंतर्गत जो पद्धति अपनाई गयी वह इतनी अस्पष्ट थी कि जन प्रतिनिधित्व प्रणाली एक प्रकार की बहुत सी छन्नियों में से छानने की क्रिया बन गयी। कुछ लोग स्थानीय निकायों का चुनाव करते थे, ये सदस्य चुनाव मण्डलों का चुनाव करते थे और ये चुनाव मण्डल प्रांतीय परिषदों के सदस्यों का चुनाव करते थे और यही प्रांतीय परिषदों के सदस्य केंद्रीय परिषद के सदस्यों का चुनाव करते थे। सुधारों को कार्यान्वित करते हुये बहुत सी गड़बड़ियां उत्पन्न हो गयीं। संसदीय प्रणाली तो दे दी गयी परंतु उत्तरदायित्व नहीं दिया गया, जिससे भारतीय नेताओं ने विधान मण्डलों को सरकार की कटु आलोचना करने का मंच बना लिया। केवल गोपाल कृष्ण गोखले जैसे कुछ भारतीय नेता ही इस अवसर का वास्तविक उपयोग कर सके। उन्होंने सभी के लिये प्राथमिक शिक्षा, सरकार की दमनकारी नीतियों की आलोचना तथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीय मजदूरों पर हो रहे अत्याचार जैसे मुद्दों को उठाकर इस मंच का सही अर्थों में उपयोग किया।
यद्यपि इस अधिनियम द्वारा चुनाव प्रणाली के सिद्धांत को भारत में पहली बार मान्यता मिली, गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद् में पहली बार भारतीयों को प्रतिनिधित्व मिला तथा केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधान परिषदों के सदस्यों को कुछ सिमित अधिकार प्रदान किए गए किन्तु अधिनियम की औसत उपलब्धियां नगण्य ही रहीं। 1909 के सुधारों से जनता को केवल ‘नाममात्र’ सुधार ही प्राप्त हुये, वास्तविक रूप से कुछ नहीं। इससे प्रभाव तो मिला पर शक्ति नहीं। शासन का उत्तरदायित्व अन्य वर्ग को और शक्ति अन्य वर्ग को सौंप दी। ऐसी स्थिति पैदा हो गयी कि विधानमण्डल तथा कार्यकारिणी के बीच कड़वाहट बढ़ गयी तथा भारतीयों और सरकार के सम्बंध और बदतर हो गये। 1909 के सुधारों से जनता ने कुछ और ही चाहा था उन्हें कुछ और ही मिला। भारतीयों ने स्वशासन की मांग की तथा उन्हें ‘हितवादी निरंकुशता’ सौंप दी गयी। इन सुधारों के संबंध में महात्मा गांधी ने कहा ‘मार्ले-मिन्टो सुधारों ने हमारा सर्वनाश कर दिया!

सहकारी समितियां Co-Operative Societies

भारत में सहकारी आंदोलन को आंरभ हुये नौ दशक हो चुके हैं। इन वर्षों में यह आंदोलन विश्व का सबसे बड़ा सहकारी आंदोलन बन गया है। भारत में इसका आरंभ 1904 में फेड्रिक निकल्सन द्वारा सहकारी ऋण समिति की स्थापना किये जाने के साथ हुआ था। ऋण क्षेत्र से आरंभ हुआ यह आंदोलन आवास, उपभोक्ता वस्तुओं के उचित मूल्य पर विपणन, विधायन क्षेत्रों और कृषि में उन्नत तरीकों को अपनाने, चकबंदी, क्रय-विक्रय इत्यादि क्षेत्रों में विस्तारित हो चुका है।
भारत में आयोजन के कर्णधारों ने सहकारिता को ग्रामीण क्षेत्र विशेषकर दलितों के विकास की कुंजी के रूप में माना था। समतामूलक, आत्मनिर्भर और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की नींव ग्रामीण स्वशासन, शिक्षा और आपसी सहयोग पर आधारित शोषण रहित सहकारिता पर ही रखी जा सकती है। सहकारिता की स्थापना लोकतांत्रिक आधार पर की गयी थी और इसके अंतर्गत निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के गुणों को समन्वित करने का प्रयास किया गया था। पांचवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत कहा गया था,- सहकारिता, आपसी सहयोग की प्रेरणा और सिद्धांतों के संस्थानीकरण को प्रदर्शित करती है। इसके अंतर्गत व्यक्ति की स्वतंत्रता और अवसर को वृहत-स्तरीय संगठन और प्रबंध के लाभों के साथ सम्मिश्रित किया जा सकता है। देश की वर्तमान परिस्थितियों में, वांछित सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के लिए सहकारिता सुविधाजनक साधन है।
भारत में सहकारिता का विकास
भारत में सहकारिता का आरंभ ब्रिटिश-राज के समय में हुआ था। 1901 में सहकारी समितियों के संगठन और उनकी सफलता की संभावनाओं की पड़ताल के लिए ऐडवर्ड ला की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई थी। ऐडवर्ड ला समिति की सिफारिशों को आधार बना कर सहकारी साख अधिनियम, 1904पारित किया गया परंतुशीघ्र ही इसकी कमियां उजागर होने लगीं और 1912 में नया अधिनियम पारित किया गया। 1904 के अधिनियम में प्राथमिक सहकारी समितियों की सहायता के लिए किसी केंद्रीय संस्था की स्थापना नहीं की गई थी। जिसके कारण यह विधान ग्रामीण क्षेत्र की बढती आवश्यकताओं को सहकारिता आन्दोलन के माध्यम से पूरा करने में असफल रहा। 1919 में सहकारिता को केंद्रीय सूची से हटा कर प्रांतीय सूची में स्थानांतरित कर दिया गया ताकि राज्य क्षेत्रीय वातावरण और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार सहकारी आंदोलन को आगे बढ़ा सकें। सहकारी आंदोलन के विकास में 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। द्वितीय विश्व युद्ध के काल में जहां किसानों की आर्थिक स्थिति में, प्राथमिक वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि के कारण सुधार हुआ वहीं सहकारिता आंदोलन को भी बल मिला। इस काल में, सहकारिता समितियों की संख्या, सदस्य संख्या, पूंजी एवं संचित राशि में तीव्र वृद्धि हुई। सहकारिता आंदोलन आरंभ के साठ वर्ष में अधिक सफल नहीं रहा। किंतु बाद के काल में सरकार एवं भारतीय रिजर्व बैंक के सहयोग से इस आंदोलन को बल प्राप्त हुआ।
सहकारी समितियों का कानूनी एवं संवैधानिक दर्जा
भारत सरकार ने सहकारी समितियों के लिए कुछ राष्ट्रीय नीतियों की घोषणा की है। इन नीतियों का उद्देश्य सहकारी समितियों की हर संभव आवश्यक सहायता सुनिश्चित कराना है ताकि वे अपने कार्य, स्वायत्तता, स्वःनिर्भरता, और लोकतांत्रिक प्रबंधन संस्थानों के माध्यम से कार्य कर सकें।
केंद्र सरकार ने समितियों की आवश्यक स्वायत्तता प्रदान करने के लिए बहुस्तरीय राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 1984 में संशोधन कर नया अधिनियम बहुस्तरीय राज्य सहकारी समिति अधिनियम,2002 बनाया है। इस अधिनियम के तहत्, राज्य बहुस्तरीय सहकारी समितियों को प्रकार्यात्मक स्वायत्तता और लोकतांत्रिक प्रबंधन प्रदान करना है। यह अधिनियम राष्ट्रीय स्तर की सहकारी समितियों/संघीय, और बहु-राज्यीय सहकारी समितियों द्वारा लागू किया जायेगा। इससे आशा व्यक्त की गई कि, यह एक प्रतिरूप की तरह कार्य करने तथा राज्य सहकारी नियमों में सुधार लायेगा।
एनसीडीसी (NCDC) अधिनियम, 1962 में संशोधन करके एनसीडीसी सुधार अधिनियम, 2002 लाया गया है, जिसका विस्तार, कर, खाद्य सामग्री, उद्योगों के समान, कार्यक्रमों के संचालन तथा अन्य क्रिया-कलापों की सामग्रियों को इसमें शामिल किया गया है। इसके कार्यक्रम हैं- जल संरक्षण, पशुदेख-भाल, स्वास्थ्य, बीमारियों की रोकथाम, कृषि बिमा और कृषि साख और ग्रामीण स्वच्छता, अव्यवस्था, गंदे पानी की निकास नली तथा परनालों की मरम्मत। मई 2006 में लोकसभा में सहकारी नीतियों को सुदृढ़ और शक्तिशाली बनाने के लिए, 106वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया।
संविघान (सत्तानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2011
राज्य के इस अधिनियम के तहत, सामाजिक और आर्थिक न्याय और विकास के फल का एकसमान वितरण सुनिश्चित करने के प्रयास के तौर पर बृहद पैमाने पर सहकारी समितियों की संवृद्धि पर विचार किया गया। विस्तार के बावजूद, गुणात्मक संदर्भ में इनका निष्पादन यथोचित स्तर का नहीं रहा है। राज्यों के सहकारिता सोसायटी अधिनियम में सुधार करने की आवश्यकता पर विचार करते हुए, कई मौकों पर राज्य सरकारों से परामर्श किया गया और राज्य सहकारिता मंत्रियों के साथ बैठकें की गई। संविधान में संशोधन करने की एक बलवती जरूरत महसूस की गई ताकि सहकारी समितियों को अनावश्यक बाह्य हस्तक्षेप से मुक्त रखा जा सके और उनका स्वायत्त संगठनात्मक स्वरूप और लोकतांत्रिक कार्यकरण भी सुनिश्चित हो सके।
परिणामस्वरूप, संविधान (111वां संशोधन) विधेयक, 2011, संसद के दोनों सदनों में पारित होने के बाद, 12 जनवरी, 2012 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संविधान (97वां संशोधन) अधिनियम, 2011 हो गया। अधिनियम ने सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को मूल अधिकार बना दिया है। अधिनियम सहकारी समितियों के प्रबंधन की जिम्मेदारी सुनिश्चित करता है एवं कानून के उल्लंघन के लिए निरोध प्रदान करता है।
संशोधन अधिनियम ने भारतीय सहकारिता आंदोलन के परिमाणात्मक बढ़ोतरी के बजाय गुणात्मक पहलू को उजागर किया है। इस अधिनियममें सहकारी समितियों के अलोक्तान्त्रतिक कृत्यों, जवाबदेही का आभाव का अभाव और पेशेवर प्रबंधन तथा निम्न उत्पादकता पर विशेष ध्यान दिया गया है।
अधिनियम ने भारतीय संविधान के भाग III का संशोधन किया है जिससे अनुच्छेद 19 में, खण्ड (1) के, उपखण्ड (ग) में, या संघ, शब्द के बाद या सहकारी समितियां शब्द जोड़ा गया है। संविधान के भाग IV में, अनुच्छेद 43क के बाद अनुच्छेद 43ख जोड़ा गया है जो प्रावधान करता है कि राज्य सहकारी समितियों के स्वैच्छिक संगठन, स्वायत्त कार्यकरण, लोकतांत्रिक नियंत्रण तथा पेशेवर प्रबंधन को बढ़ाने का प्रयास करेगा।
संविधान के भाग 9क के बाद एक नया भाग जिसे भाग 9ख (अनुच्छेद 243 यज-243 यन) कहा गया है, जोड़ा गया है जो सहकारी समितियों संबंधी परिभाषाएं; सहकारी समितियों का समावेशन; बोर्ड के सदस्यों एवं इसके पदाधिकारियों की संख्या एवं पदावधि; बोर्ड के सदस्यों का चुनाव; बोर्ड एवं अंतरिम प्रबंधन का निलम्बन; सहकारी समितियों के लेखाओं का अंकेक्षण; जनरल बॉडी बैठक का आयोजन; सूचना प्राप्त करने का अधिकार, रिटर्न फाइल करने; अपराध एवं दंड; बहु-राज्य सहकारी समितियों पर अनुप्रयोग; संघ शासित प्रदेशों पर अनुप्रयोग एवं वर्तमान विधि की निरंतरता का प्रावधान करता है।
परिभाषाएं: 243 यज इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,–
  1. प्राधिकृत व्यक्ति से अनुच्छेद 243 यथ के अधीन व्यक्ति से अभिप्रेत है;
  2. बोर्ड से एक सहकारी समिति का निदेशक मण्डल या शासकीय निकाय, किसी भी नाम द्वारा पुकारा जाए, अभिप्रेत है, जिसे समिति के मामलों का निदेशन एवं नियंत्रण का प्रबंधन सौंपा गया है;
  3. सहकारी समिति किसी राज्य में वर्तमान में प्रवृत्त सहकारी समितियों से संबंधित किसी विधि के अधीन पंजीकृत या पंजीकृत समझी जाने वाली समिति से अभिप्रेत है;
  4. बहु-राज्य सहकारी समिति उद्देश्यों के परिप्रेक्ष्य में एक राज्य तक सीमित नहीं है, से अभिप्रेत है, तथा ऐसी सहकारी समितियों से सम्बद्ध उस समय प्रवृत्त विधि के अधीन पंजीकृत है या समझी जाती है;
  5. पदाधिकारी एक सहकारी समिति के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सभापति, उपसभापति, सचिव या कोषाध्यक्ष तथा किसी सहकारी समिति के बोर्ड द्वारा चुने गए किसी अन्य व्यक्ति से अभिप्रेत है;
  6. कुलसचिव बहु-राज्य सहकारी समितियों के संबंध में केंद्र में राज्य विधानसभा द्वारा निर्मित विधि के अधीन राज्य सरकार द्वारा सहकारी समितियों के लिए नियुक्त कुलसचिव से अभिप्रेत है;
  7. राज्य अधिनियम राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित किसी विधि से अभिप्रेत है;
  8. राज्य स्तरीय सहकारी समिति एक सहकारी समिति का कार्यक्षेत्र पूरे राज्य तक व्याप्त होना तथा राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित किसी विधि में इसे परिभाषित करने से अभिप्रेत है।
सहकारी समितियों का समावेशन
243 यझ. इस भाग के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य विधानमंडल, विधि द्वारा, सहकारी समितियों के समावेशन, विनियमन तथा समापन से संबंधित उपबंध बना सकेगी जो की स्वैच्छिक संगठन, लोकतांत्रिक सदस्य-नियंत्रण, सदस्य आर्थिक सदस्य-आर्थिक सहभागिता तथा स्वायत्त कार्यकरण के सिद्धांत पर आधारित होगी।
बोर्ड के सदस्यों एवं इसके पदाधिकारियों की संख्या एवं पदावधिः 243 यञ
  • बोर्ड में निदेशकों की इतनी संख्या होगी जिसका एक राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गयी विधि द्वारा, उपबंध किया जाए।
परंतु एक सहकारी समिति के निदेशकों की अधिकतम संख्या 21 से अधिक नहीं होगी।
आगे उपबंध किया गया है की राज्य विधानमंडल, विधि द्वारा, प्रत्येक सहकारी समिति के बोर्ड में एक सीट अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए तथा दो सीट महिलाओं के लिए आरक्षित कर सकेगा जिसमें व्यक्ति सदस्य के तौर पर होंगे तथा सदस्यों में इस वर्ग या श्रेणी के व्यक्ति होंगे।
  • बोर्ड के चुने गए सदस्यों एवं इसके पदाधिकारियों की पदावधि चुनाव की तिथि से पांच वर्ष होगी तथा पदाधिकारियों की पदावधि बोर्ड के काल के समान होगी:
परन्तु यदि बोर्ड का कार्यकाल इसके वास्तविक कार्यकाल का आधे से भी कम रह गया हो, जिस वर्ग के सदस्य के संबंध में उत्पन्न हुई आकस्मिक रिक्ति को उसी वर्ग के लिए नामांकन जारी करके उस रिक्ति को भर सकेंगे।
  • राज्य विधानमण्डल, विधि द्वारा, सहकारी संस्था का सदस्य बन्ने वाले व्यक्ति के लिए बैंकिंग, प्रबंधन, वित्त या ऐसी संस्था के बोर्ड के सदस्य के तौर पर कार्य करने के लिए आवश्यक किसी भी अन्य क्षेत्र में विशेषज्ञता के संबंध में उपबंध करेगा:
परन्तु ऐसी सहकारी संस्था के सदस्यों की संख्या प्रथम उपबंध के खंड(1) में उल्लिखित 21 निदेशकों के अतिरिक्त दो से अधिक नहीं होगी,
आगे उपबंध किया गया है की ऐसे सहयोगी सदस्यों को अपनी क्षमता के अधीन सहकारी समिति के किसी भी चुनाव में मताधिकार नहीं होगा; यह भी उपबंध किया गया है कि सहकारी समिति का कार्यकारी निदेशक भी बोर्ड के सदस्यों में शामिल होगा और ऐसे सदस्यों को प्रथम उपबंध के खंड (1) में उल्लिखित निदेशकों की समग्र संख्या की गणना के उद्देश्य में शामिल नहीं किया जाएगा।
बोर्ड के सदस्यों का चुनावः 243 यट
  1. राज्य विधानमण्डल द्वारा बनाई गई विधि में किसी बात के होते हुए भी, बोर्ड के कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व नए बोर्ड का चुनाव संपन्न कराया जाएगा ताकि सुनिश्चित हो कि कार्यकाल समाप्त होने वाले बोर्ड के जाने पर बोर्ड के नए चयनित सदस्य तुरंत कार्यभार संभाल सकें।
  2. सहकारी समिति के सभी चुनावों के आयोजन एवं निर्वाचक नामावली तैयार करने के नियंत्रण, निदेशन एवं पर्यवेक्षण की शक्ति ऐसी प्राधिकारी या निकाय में निहित होगी, जैसा विधि द्वारा राज्य विधानमंडल उपबंधित करे
परन्तु राज्य विधानमंडल, विधि द्वारा, ऐसे चुनावों के आयोजन के लिए प्रक्रिया एवं निर्देशों को मुहैया करा सकेगा।
बोर्ड एवं अंतरिम प्रबंधन का निलम्बन: 243 यठ
उस समय प्रवृत्त कानून में किसी बात के होते हुए भी, किसी बोर्ड को छह माह से अधिक की अवधि के लिए हटाया या निलम्बन में नहीं रखा जाएगा: परंतु बोर्ड को हटाया या निलम्बन में रखा जा सकता है यदि-
  • इसके निरंतर अनुपस्थित रहने पर, या
  • अपने दायित्वों के निर्वहन में चूक या लापरवाही; या
  • बोर्ड ने सहकारी संस्था या इसके सदस्य के हित में कोई पक्षपातपूर्ण कार्य किया हो; या
  • बोर्ड के संविधान या कार्यों में गतिरोध हो; या
  • खंड(2) के अनुच्छेद 243यट के तहत् राज्य विधानमण्डल द्वारा, विधि द्वारा, प्राधिकृत की गई निकाय या प्राधिकरण राज्य अधिनियम के उपबंधों के अनुरूप चुनावों का आयोजन करने में असफल हो गया हो:
आगे उपबंध किया गया है कि ऐसी किसी सहकारी समिति के बोर्ड को हटाया या निलम्बन में नहीं रखा जाएगा जहां सरकारी हिस्सेदारी या ऋण या वित्तीय सहायता या सरकार द्वारा किसी प्रकार की गारंटी नहीं दी होगी।
यह भी उपबंध किया गया है कि यदि सहकारी समिति बैंकिंग व्यवस्था करती है, तो बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 के उपबंध इस पर भी लागू होगे।
यह भी उपबंधित किया गया है कि यदि एक सहकारी समिति, बहु-राज्य सहकारी समिति से भिन्न, बैंकिंग व्यवसाय करती है, तो इस खंड के प्रावधान प्रभावी होंगे जैसाकि छह माह शब्द के लिए होता है, एक वर्ष शब्द को प्रतिस्थापित कर दिया गया है।
बोर्ड को हटाए जाने की स्थिति में, ऐसी सहकारी समिति के कार्यों के प्रबंध हेतु नियुक्त किए गए प्रशासक खंड(1) में उल्लिखित किए गए समय सीमा में चुनाव आयोजन की व्यवस्था करेंगे तथा चुनकर आए बोर्ड को प्रबंधन सोंपेगा।
राज्य का विधानमंडल, विधि द्वारा, प्रशासक की सेवा शर्तों के लिए उपबंध कर सकेगा।
सहकारी समितियों के लेखाओं का अंकेक्षण: 243 यड.
  1. राज्य का विधानमंडल, विधि द्वारा, सहकारी समितियों द्वारा अनुरक्षित लेखाओं के बारे में उपबंध कर सकेगा और ऐसे लेखाओं का प्रत्येक वित्तीय वर्ष में कम-से-कम एक बार अंकेक्षण करना होगा।
  2. राज्य का विधानमण्डल, विधि द्वारा, अंकेक्षक और अंकेक्षण फर्म की न्यूनतम योग्यताएं तथा अनुभव निर्धारित करेगा जो सहकारी समितियों के लेखाओं के अंकेक्षण के लिए अर्ह होंगी।
  3. प्रत्येक सहकारी समिति का अंकेक्षण सहकारी समिति के सामान्य निकाय द्वारा नियुक्त और खंड (2) में संदर्भित अंकेक्षक या अंकेक्षण फर्म द्वारा किया जाएगा।
परंतु ऐसे अंकेक्षक या अंकेक्षण फर्म की नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित या इस कार्य हेतु राज्य सरकार द्वारा प्राधिकृत प्राधिकरण द्वारा अनुमोदित पैनल से होगी।
  1. प्रत्येक सहकारी समिति के लेखाओं का अंकेक्षण, जिस वित्तीय वर्ष से वे सम्बद्ध है, वित्तीय वर्ष की समाप्ति के छह माह के भीतर हो जाना चाहिए।
  2. सर्वोच्च सहकारी समिति के लेखाओं की अंकेक्षण रिपोर्ट, जैसा कि राज्य अधिनियम द्वारा परिभाषित किया गया हो, राज्य के विधानमंडल के समक्ष इस रीति से रखी जाएगी, जैसी राज्य विधानमंडल द्वारा, विधि द्वारा, उपबंध किया गया हो।
जनरल बॉडी बैठक का आयोजन: 243 यढ
राज्य का विधानमंडल, विधि द्वारा, उपबंध करेगा की प्रत्येक सहकारी समिति की वार्षिक जनरल बॉडी बैठक कार्यों के संपादन के लिए वित्तीय वर्ष की समाप्ति के छह माह के भीतर आयोजित की जाएगी जैसाकि इस विधि में उपबंध किया गया हो।
सूचना प्राप्त करने का सदस्य का अधिकार: 243 यण
  1. राज्य का विधानमंडल, विधि द्वारा, सहकारी समिति के प्रत्येक सदस्य को सहकारी समिति के दैनंदिन कार्यों से अवगत रखने के लिए, सुनिश्चित करेगा।
  2. राज्य का विधानमण्डल, विधि द्वारा, प्रत्येक सदस्य के लिए बैठकों में न्यूनतम उपस्थिति द्वारा सहकारी समिति के प्रबंधन में सदस्यों की सहभागिता को सुनिश्चित करने का उपबंध कर सकेगा और इस सकेगा और इस विधि के उपबंधों द्वारा सेवाओं के एक न्यूनतम स्तर का उपयोग कर सकेगा।
  3. राज्य का विधानमण्डल, विधि द्वारा, इसके सदस्यों के लिए सहकारी शिक्षा और प्रशिक्षण की व्यवस्था कर सकेगा।
रिटर्न: 248 यत
प्रत्येक सहकारी समिति राज्य सरकार द्वारा प्राधिकृत प्राधिकरण को, प्रत्येक वित्त वर्ष के समाप्त होने के छह माह के भीतर, रिटर्न फाइल करेगी, जिसमें निम्न मामले भी शामिल होंगे, नामतः
  1. इसकी गतिविधियों की वार्षिक रिपोर्ट;
  2. इसके लेखाओं का अंकेक्षित मसौदा;
  3. सहकारी समिति की जनरल बॉडी द्वारा अनुमोदित अधिशेष निपटान योजना;
  4. यदि है तो, सहकारी समिति के उपनियमों में किए गए संशोधन की सूची;
  5. इसकी जनरल बॉडी की बैठक एवं चुनावों के आयोजन के संबंध में तिथि की घोषणा करना; और
  6. अन्य कोई सूचना जिसे कुलसचिव द्वारा राज्य अधिनियम के किसी उपबंध का अनुवर्तन करने में मांगा गया हो।
अपराध एवं दंड: 248 यथ
  1. राज्य का विधानमण्डल, विधि द्वारा, सहकारी समितियों से संबंधित अपराधों और ऐसे अपराधों के लिए दंड के बारे में उपबंध कर सकेगा।
  2. राज्य के विधानमण्डल द्वारा खंड (1) के अधीन बनाई गई विधि में निम्न अधिनियम का कृत्य या अपकृत्य अपराध के तौर पर शामिल होगा, नामतः
  • एक सहकारी समिति या उसका एक अधिकारी या सदस्य जानबूझकर मिथ्या रिटर्न फाइल करता है या असत्य सूचना देता है, या कोई व्यक्ति राज्य अधिनियम के उपबंधों के अधीन प्राधिकृत किए गए व्यक्ति को मांगे जाने पर जानबूझकर कोई सूचना नहीं देता है;
  • कोई व्यक्ति जानबूझकर या बिना किसी उचित कारण के राज्य अधिनियम के उपबंधों के अधीन जारी किए गए किसी सम्मन, प्रार्थना या कानूनी लिखित आदेश की अवज्ञा करता है;
  • कोई नियोक्ता जो, बिना किसी पर्याप्त कारण के, अपने कर्मी के वेतन में से काटी गई रकम को, कटौती की तिथि से चौदह दिनों के भीतर सहकारी समिति को चुकाने में असफल हो गया हो;
  • कोई व्यक्ति या संरक्षक जो जानबूझकर एक सहकारी समिति से सम्बंधित पुर्तकों, लेखाओं, कागजातों, अभिलेखों, नकद, प्रतिभूति एवं अन्य संपदा की संरक्षा की प्राधिकृत व्यक्ति को नहीं सौंपता; और
  • जो कोई, बोर्ड के सदस्यों या पदाधिकारियों के चुनाव से पहले, दौरान या पश्चात् भ्रष्ट तरीका अपनाता है।
बहु-राज्य सहकारी समितियों पर अनुप्रयोग: 243 यद
इस भाग के उपबंध बहु-राज्य सहकारी समितियों पर लागू होगे तथा राज्य विधानमण्डलराज्य अधिनियम या राज्य सरकार के संशोधन के संदर्भ के अधीन रहते हुए, यह क्रमशः संसदकेंद्रीय अधिनियम या केंद्र सरकार के संदर्भ के तौर पर इसका निर्वचन किया जाएगा।
संघ शासित प्रदेशों पर अनुप्रयोग: 243यध
इस भाग के उपबंध संघ शासित प्रदेशों पर लागू होंगे तथा, संघ शासित प्रदेश में उनके लागू होने पर, विधानसभा न होने पर, यदि राज्य विधानमण्डल का संदर्भ है तो वह अनुच्छेद 239 के अधीन नियुक्त प्रशासक का संदर्भ माना जाएगा, विधान सभा वाले संघ शासित प्रदेश के संबंध में, यह विधान सभा का संदर्भ माना जाएगा।
परंतु राष्ट्रपति, भारत के राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, निदेश कर सकेगा कि किसी संघ प्रदेश या क्षेत्र पर, जैसा कि वह अधिसूचना में उल्लेख करता है, इस भाग के प्रावधान लागू नहीं होगे।
वर्तमान विधि की निरंतरता: 243 यन
इस भाग में किसी बात के होते हुए भी, सहकारी समितियों से संबंधित किसी विधि का कोई प्रावधान संविधान (97वां संशोधन) अधिनियम, 2011 के प्रारंभ से तुरंत पूर्व राज्य में प्रवृत्त है, जो इस भाग के उपबंधों के साथ असंगत हैं, जारी रहेंगे जब तक कि एक सक्षम विधानमण्डल या अन्य सक्षम प्राधिकरण इसे संशोधित या निरसित न कर दे या इसके प्रारंभ को एक वर्ष पूरा हो गया हो, जो भी पहले हो।
अधिनियम सहकारी समितियों के समावेश के लिए राज्य को सशक्त बनाता है। अधिनियम उपबंध करता है कि इस भाग के प्रावधान बहु-राज्य सहकारी समितियों पर लागू होंगे तथा, राज्य विधानमण्डल, राज्य अधिनियम या राज्य सरकार के संशोधन के संदर्भ के अधीन रहते हुए, यह क्रमशः संसद, केंद्रीय अधिनियम या केंद्र सरकार के संदर्भ के तौर पर इसका निर्वचन किया जाएगा। इस भाग के उपबंध संघशासित प्रदेशों पर लागू होगे तथा, संघ शासित प्रदेश में उनके लागू होने पर, विधानसभा न होने पर, यदि राज्य विधानमण्डल का संदर्भ है तो वह अनुच्छेद 289 के अधीन नियुक्त प्रशासक का संदर्भ माना जाएगा, विधानसभा वाले संघ शासित प्रदेश के संबंध में, यह विधानसभा का संदर्भ माना जाएगा। परंतु राष्ट्रपति, भारत के राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, निदेश कर सकेगा कि किसी संघ प्रदेश या क्षेत्र पर, जैसा कि यह अधिसूचना में उल्लेख करता है, इस भाग के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
इस प्रकार, अधिनियम भारत में सहकारी समितियों के लोकतांत्रिक, पेशेवर, स्वायत्त एवं आर्थिक रूप से सुदृढ़ तरीके से कार्यकरण को सुनिश्चित करता है। लोकतांत्रिक आधार पर समन्वित व स्थापित सहकारिता आंदोलन ने 2008 में अपने स्थापना के 100 वर्ष पूरे कर लिए। इन 100 वर्षों में यह आंदोलन विश्व का सबसे बड़ा सहकारी आंदोलन बनकर उभरा है। 1908 में स्थापित सहकारिता आंदोलन, आने वाली नई चुनौतियों, तथा वांछित नए सामाजिक परिवर्तनों के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहा है।

अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन Administration in Scheduled and Tribal Areas

अनुसूचित क्षेत्र
संविधान के अनुच्छेद 244(1) के अंतर्गत असम, मेघालय, त्रिपुरा एवं मिजोरम से भिन्न राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों कहे जाने वाले कुछ क्षेत्र (फिर चाहे ये क्षेत्र किसी राज्य में हों अथवा संघ शासित क्षेत्र में) के प्रशासन हेतु कुछ विशेष प्रावधान किए गए हैं। ऐसा इन क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों के पिचादेप्न को अधर बना कर किया गया है। किसी क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने का अधिकार संविधान द्वारा राष्ट्रपति को प्रदान किया गया है, किंतु ऐसा वह संसद द्वारा पारित विधान के अधीन रहते हुए ही कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह किसी भी समय किसी भी क्षेत्र के अनुसूचित क्षेत्र के स्तर को समाप्त कर सकता है। अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन से सम्बन्धित विशेष प्रावधान संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत किए गए हैं।
अनुसूचित क्षेत्रों का प्रशासन
अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के सम्बन्ध में संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार इन क्षेत्रों से सम्बन्धित राज्यों को प्रशासन सम्बन्धी आवश्यक निर्देश देने तक ही होगा। अनुसूचित क्षेत्र वाले राज्य का राज्यपाल प्रतिवर्ष अथवा मांगे जाने पर उक्त राज्य के अनुसूचित क्षेत्र के प्रशासन सम्बन्धी अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करेगा। वह चाहे तो सम्बन्धित राज्य के राज्यपाल से विचार-विमर्श करके किसी भी अनुसूचित क्षेत्र के क्षेत्रफल में वृद्धि कर सकता है, उनके सीमा क्षेत्र में परिवर्तन कर सकता है तथा उसके पुनर्निर्धारण के आदेश प्रेषित कर सकता है।
राज्यपाल की कानून निर्माण संबंधी शक्तियां
राज्यपाल को यह प्राधिकार है कि वह कभी भी संबद्ध क्षेत्र में कल्याण एवं शांति हेतु निर्देश दे सकता है। वह अनुसूचित क्षेत्र के लोगों के बीच परस्पर भूमि के आदान-प्रदान या स्थानांतरण पर प्रतिबंध लगा सकता है। वह भूमि के आबंटन पर नियंत्रण संबंधी निर्देश दे सकता है। वह उन व्यावसायिकों व ऋणदाताओं को इन क्षेत्रों के अनुसूचित जनजातियों के लोगों को उधार न देने संबंधी कानून बना सकता है। इसके अतिरिक्त वह राष्ट्रपति की सहमति से संसद या विधान सभा द्वारा आरोपित, कुछ समय के लिए प्रभावी कानून को संशोधित कर सकता है या समाप्त कर सकता है।
वस्तुतः राज्यपाल द्वारा किसी भी प्रकार के कानून निर्माण इत्यादि के लिए राष्ट्रपति की अनुमति अत्यंत आवश्यक है।
जनजातीय सलाहकार परिषद्
संविधानतः अनुसूचित क्षेत्र वाले राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण एवं उन्नति संबंधी ऐसे विषयों पर परामर्श प्रदान करने हेतु, जो उसे राज्यपाल द्वारा निर्दिष्ट किए जाएं, जनजातीय सलाहकार परिषदों का गठन किया जाएगा (अनुसूची-V)। इस परिषद में 20 से अधिक सदस्य नहीं होंगे तथा जिनमें से तीन-चौथाई राज्य विधान सभा में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधि होंगे। यदि राज्य विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधियों की संख्या परिषद में भरे जाने वाले पदों की संख्या से कम होगी तो शेष पदों को उन क्षेत्रों के अन्य सदस्यों से भरा जाएगा। इस संबंध में राज्यपाल को निम्नलिखित नियम बनाने का प्राधिकार है-
  1. परिषद की सदस्य संख्या उनके अध्यक्ष व अन्य अधिकारियों की नियुक्तियों की विधि तथा नियम;
  2. परिषद की विभिन्न सभाओं का संचालन तथा सामान्यतः इसकी कार्य-प्रक्रिया, तथा;
  3. अन्य आकस्मिक विषयादि।
यह सलाहकारी परिषद राज्य में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण व विकास हेतु अपनी महत्वपूर्ण सलाह प्रदान करती है।
पांचवीं अनुसूची में संशोधन
संसद समय-समय पर इस अनुसूची के किसी भी प्रावधान को विधि द्वारा संशोधित व समाप्त कर सकती है। जब अनुसूची का इस प्रकार संशोधन किया जाता है तब इस संविधान में इस अनुसूची के प्रति किसी निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह इस प्रकार संशोधित ऐसी अनुसूची के प्रति निर्देश है। अनुच्छेद 368 के प्रयोजन के लिए इसे संविधान का संशोधान नहीं माना जाएगा।
  • अनुसूचित क्षेत्रों एवं उनके प्रशासन का उल्लेख संविधान की 5वीं अनुसूची में तथा जनजातीय क्षेत्रों एवं उनके प्रशासन का उल्लेख 6वीं अनुसूची के अंतर्गत किया गया है।
  • अनुसूचित क्षेत्रों के निर्धारण का अधिकार राष्ट्रपति को है।
 जनजातीय क्षेत्र
संविधान के अनुच्छेद-244(2) के अंतर्गत असम, मेघालय, त्रिपुरा एवं मिजोरम के जनजातीय क्षेत्रों के सम्बन्ध में व्यवस्था और उनके प्रशासन सम्बन्धी आवश्यक प्रावधानों का उल्लेख संविधान की 6वीं अनुसूची के अंतर्गत की गई है।
जनजातीय क्षेत्रों का प्रशासन
6वीं अनुसूची में वर्णित असम, मेघालय, त्रिपुरा एवं मिजोरम राज्यों के जनजातीय क्षेत्र स्वशासी जिले के रूप में प्रशासित किए जाएंगे। ये स्वशासी जिले राज्य सरकार के कार्यपालक प्राधिकार के बाहर तो नहीं हैं किंतु कुछ विधायी  एवं न्यायिक कृत्यों के प्रयोग के लिए जिला परिषद एवं प्रादेशिक परिषदों के सृजन का प्रावधान किया गया है। ये परिषदें प्राथमिक रूप से पृथक् निकाय हैं और उन्हें कुछ विनिर्दिष्ट क्षेत्रों में विधान बनाने की शक्ति है, जैसे- आरक्षित वन से भिन्न वनों का प्रबन्ध, सम्पत्ति की विरासत, विवाह, सामाजिक रीति रिवाज, आदि। इसके अतिरिक्त इन परिषदों को भू-राजस्व के निर्धारण एवं संग्रहण की तथा कुछ विनिर्दिष्ट कर आरोपित करने की शक्ति भी प्राप्त है। इन परिषदों द्वारा बनाई गई कोई भी विधि राज्यपाल की अनुमति के बिना प्रभावी नहीं होगी।
जिन विषयों के सम्बन्ध में विधि निर्माण हेतु जिला एवं प्रादेशिक परिषदों को अधिकृत किया गया है, उन विषयों से सम्बन्धित राज्य विधानमण्डल द्वारा बनाए गए अधिनियम तब तक जनजातीय क्षेत्रों पर लागु नहीं होंगे जब तक कि सुसंगत जिला  परिषद् एक लोक अधिसूचना जारी करके तत्सम्बन्धी निदेश जारी न करे।
जिला एवं प्रादेशिक परिषदों को न्यायिक, सिविल एवं दांडिक शक्तियां प्राप्त होंगी और वे उच्च न्यायालय की अधिकारिता के इस प्रकार अधीन होंगी जो राज्यपाल समय-समय पर विनिर्दिष्ट करे।
  • संविधान के अंतर्गत असम, मेघालय, त्रिपुरा एवं मिजोरम राज्य जनजातीय क्षेत्र घोषित किए गए हैं।
  • ये जनजातीय क्षेत्र राज्य सरकार के कार्यपालक प्राधिकार के अधीन स्वशासी जिले के रूप में प्रशासित किए जाते हैं।
  • इन स्वशासी जिलों में जिला परिषद एवं प्रादेशिक परिषदों के गठन का प्रावधान संविधान में किया गया है।
  • परिषदों को न्यायिक, सिविल एवं दाण्डिक शक्तियां प्राप्त होती हैं।